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Showing posts from November, 2019
डरने की पर बात नहीं है --------------------------- दिन सहमा सहमा गुजरा है पल भर सोई रात नहीं है डरने की पर बात नहीं है पतझड़ आया, पगडंडी पर सूखे पत्तों की चीखें हैं धीरज की चादर ओढ़े, कुछ पिछले मौसम की सीखें हैं मन के गलियारे में पसरा दुख सारा नवजात नहीं है डरने की पर बात नहीं है पलकों के पीछे छुप कर यह गीलापन सूखने लगा है काली रात बहुत लंबी है अब तक सूरज नहीं उगा है चांद कहीं मुंह छुपा रहा है तारों की बारात नहीं है डरने की पर बात नहीं है। - प्रदीप शुक्ल
अगहन ------- उड़ने लगे धूप के टुकड़े बैठी रही हवा अगहन ने आते ही बांटी सबको नींद दवा ख़त्म हो गए उत्सव सारे गलियां हैं सूनी बेलें चढ़ीं मुंडेर, लग रहीं कितनी बातूनी मन्त्र पढ़े कोने में बैठा तुलसी का बिरवा रोज भोर होते महुए से कुहरा चूता है सकुचाया सूरज महुए के पत्ते छूता है घूम रहा कनटोपा पहने लछमी का बचुवा इसी महीने इम्तेहान हो रहे छमाही के दादी कहती दिन होंगे अब आवाजाही के अम्मा ने आंगन में, चूल्हे पर रख दिया तवा - प्रदीप शुक्ल
चांद अउर तारे अउर दुनिया / चार्ल्स बुकोव्स्की ------------------------------------------------- राति मा दूरि तक टहरति बखत- आतमा जुड़ाय जाय : जब निगाह खिरकिन पर अटकति है देखि कै दिन भर की थकी मेहरारुन का जिउ भरि लडै़ कै कोसिस करति दारू मा धुत्त अपने मंसवन ते l ( अवधी प्रस्तुति : प्रदीप शुक्ल )
हम तोरई के फूल ------------------ तुम गुलाब के गुलदस्ता हौ हम तोरई के फूल तुम तन पानी के फव्वारा हमरी कइती धूल तुमका मलकिन हउले हउले सुबा - साम सोहरावैं उलरि उलरि कै बोकरी हमका नोचि नोचि कै खावैं जानु बचावै खातिर हम तो रहेन छपरिया झूल खूनु पी गयो तुम हमार सब, होइगे चेहरा पीले लेकिन हमका मारि न पइहौ हमहू बहुत हठीले घूरे पर हम मुसकाई, दुख आपन सारे भूल तुमरी तना भले हम मंदिर भीतर जाय न पाई लेकिन पेटे केरि आगि हम अच्छी तना बुझाई तुम देउतन के साथ रहौ हम जनता के अनुकूल - प्रदीप शुक्ल
सीधे बिस्तर पर आ जाना नहीं चलेगा कोई बहाना आओ याद तुम्हारी आई क्या सखि साजन? नहीं ' रजाई ' - प्रदीप शुक्ल ले आया गुलाब के फूल अभी लग रहा बढ़िया, कूल अब तक उसको नहीं लताड़ा क्या सखि साजन? ना सखि ' जाड़ा ' - प्रदीप शुक्ल बाईस सालों का गठजोड़ लोग कह रहे जाओ छोड़ अब तक सहे बहुत उत्पात क्या सखि साजन? ना, ' गुजरात ' - प्रदीप शुक्ल
क्वाड्रीलेटरल ------------- जब तब आंखि देखावै हमका यहु दहिजरवा चीन काका हमरे ढूंढ़ि लाय हैं द्याखौ साथी तीन अमरीका तो दउरि क हमते तुरतै हाथु मिलाइसि असटरेलिया के काने मा वहै कुछो समझाइसि दुखी बइठ जापान चीन ते रिस्ता है नमकीन पाकिस्तान चीन के पायँन मा गिरि गिरि कै ल्वाटै बदले मा वहु सांपन कइहाँ दूधु बतासा बांटै उनहुन का ई डसिहैं, चीनी भले बजावैं बीन क्वाड्रीलेटरल चौराहे पर भारत बींधैं माला फिलिपीन्स औ वियतनाम के सोहरावति है छाला मुस्किल हैं कसि पावैं सब मिलिकै ड्रैगन पर जीन - प्रदीप शुक्ल
कार्बनडाईऑक्साइड ---------------------- मोती ने आंखें खोलीं तो पाया खुद को घर में दुबका हुआ पड़ा था अपने छोटे से बिस्तर में मम्मी ने बनवा दी उसके खातिर छोटी सदरी तेज हवा थी जाड़ा था, थी आसमान में बदरी दिन भर तो वह उछला कूदा शीलू को दौड़ाया रात हुई तो थर थर कांपा मोती बहुत जड़ाया दादा जी ने तब अलाव के पास उसे बैठाया स्टोर रूम में मोती का फिर बिस्तर स्वयं लगाया देर रात में शीलू ने जब झाँक लिया था स्टोर कमरे में बस गूँज रहा था कूँ कूँ कूँ का शोर शीलू ने देखा दालान में थे अलाव के कोयले सुलग रहे थे उसके अन्दर अभी आग के गोले उसने तसले को खिसकाया और रख दिया स्टोर में बंद कर दिया दरवाजा देखेंगे इसको भोर में कुछ घंटों के बाद अभी थी तीन बजे की बात भैया को थी चाय बनानी पढ़ता सारी रात देखा तो स्टोर में पूरा धुआं भरा था भारी मोती पड़ा हुआ था उस पर बेहोशी थी तारी भैया उसे उठाकर फ़ौरन खुली हवा में आया बहुत देर में तब मोती ने अपना कान हिलाया कोयले ने सारी ऑक्सीजन कमरे की खा डाली कार्बनडाईऑक्साइड बेहोशी देने वाली दादा कहते, शीलू देखो होती है दुर्घटना जलती हुई अंगीठी, कोयला कमरे में
सॉरी, हरक्युलिस ----------------- " बंद ट्रक में सोते समय छ: लोगों की दम घुटने से मौत " बीती रात दिल्ली में ...... दादा जी सुबह का अखबार जोर जोर से पढ़ रहे थे l लगभग चीखते हुए मयंक बोला, " दादा जी प्लीज चुप हो जाइए और पेपर अपने मन में पढ़िए l मेरा आज साईंस का टेस्ट है, मैं अपना पाठ याद कर रहा हूँ l प्लीज ... प्लीज दादाजी l " दादाजी कुछ कहते कहते रुक गए, और चश्मा ठीक कर फिर से पेपर बिना आवाज़ के पढने लगे l मयंक अपना पाठ याद करने लगा l ... एक बड़े जार में, हरे पौधे के साथ एक चूहे को बंद कर दिया गया l एक दूसरे जार में पौधे और चूहे के साथ जलती हुई मोमबत्ती भी रख दी गई l कुछ समय बाद जिस जार में जलती हुई मोमबत्ती थी उसके अन्दर रखे हुए चूहे की मृत्यु हो गई l जार के अन्दर की ऑक्सीजन को मोमबत्ती ने जलाकर कार्बनडाईऑक्साइडऔर कार्बन मोनो ऑक्साइड में बदल दिया l मतलब ऑक्सीजन की कमी से चूहे की मौत हो गई ..... अपनी किताब बैग में रखते हुए मयंक ने दादाजी के पास आकर खूब प्यार किया और चिल्लाने के लिए माफी भी मांगी l दादाजी ने मुस्कुराकर उसे स्कूल के लिए बाहर तक छोड़ा l " दादाजी श
पचहत्तर साल की उम्र के बाद समाज को आपकी जरूरत नहीं ----------------------------------------------------------------- एक पचहत्तर साल का भला चंगा आदमी एक दिन अचानक बीमार पड़ जाता है l अब बीमार तो कोई भी हो सकता है l हमारे पूर्व प्रधानमन्त्री आदरणीय अटल बिहारी वाजपेई जी भी पिछले कई बरसों से गंभीर रूप से बीमार चल रहे हैं l लेकिन हम लाखों देशवासियों की यही इच्छा है कि अभी वह जीवित रहें l परन्तु यहाँ मैं पचहत्तर साल के उस भले आदमी की बात कर रहा हूँ जो आज से दो महीने पहले अचानक से बीमार पड़ गया l जैसा कि अमूमन होता है उन्हें भी शहर के सबसे बड़े माने जाने वाले अस्पताल संजय गांधी आयुर्विज्ञान संस्थान में भर्ती कराने की कोशिश की गई l यहाँ पर यह बता देना उचित रहेगा कि बीमार हुआ व्यक्ति स्वयं एक डॉ है l 1960 बैच केजीएमसी का यह छात्र राज्य के स्वास्थ्य विभाग से संयुक्त निदेशक के पद से अवकाश प्राप्त हैं l दशकों तक मेडिकल सुपरिन्टेन्डेन्ट और सीएमओ के पद पर रहते हुए हजारों मरीजों का स्वास्थ्य ठीक करने वाले इस भले आदमी के लिए सरकारी अस्पताल में कोई जगह नहीं थी l बात बिलकुल ठीक भी थी कि किसी बीमार
मूंगफली लइ आयेव बप्पा -------------------------- मूंगफली लइ आयेव बप्पा जब लौटेव बाजार ते बार बार तुम भूलि जा रहेव है पिछले अतवार ते धनिया वाला नमकु सूखि गा मूंगफली ना आई तीन दिनन ते लगातार हम सपने मा बसि खाई लइ ही आयेव बप्पा अबकी चाहे लायेव उधार ते सूटरु चिथरा होइगा लेकिन लागि रहा ना जाड़ा सक्कर भले न लायो हम पी लेबै करुआ काढ़ा हमरे खातिर मूंगफली तुम मांगि लायेव सरकार ते होइगा होय चुनाव जो पूरा बप्पा उन ते बोलेव किरपा केरि गठरिया थोरी हमरेव गांव म खोलेव हमरे भूखे प्याटन कईहाँ जोड़ि लेव आधार ते - प्रदीप शुक्ल
संता बाबा राम राम वइसे तो तुम आजु काफी बिजी होइहो यही बरे हम स्वाचा तुमका चिट्ठी लिखि देई l पता नहीं कि हमार नम्बरु तुमरे मोबाइल मा नोट है कि नहीं l तऊं कहां तक, औ कहिका कहिका नम्बर राखौ तुम, बड़े बवाल हैं तुमरे जी का, हम जानिति नहीं का l भोरहें ते लाग होईहो l राम जानै तुम सबका कइसे खुस करति होइहौ, हियाँ तो दुई बालक जिउ अघवा देति हैं l खैर यहु तुम्हार कामु आय तुम जानौ l हमका तौ चिंता यहि बात केरि है कि तुम भोरउखे मोहल्ला मा अइहौ लाल झिंगोला पहिरि क, औ हियाँ मोहल्ले मा कुछु कूकुरु बौरान घूमि रहे हैं l कहूं काटि जो लिहिनि तौ तुम्हरी तरफ वाले अखबार मारि रँगि डरिहैं उल्टा सीध लिखि लिखि कै l तो हमारि गुजारिसि है कि ' अम्माजान ' ते सबका गिफ्ट भेजवा दीन्हेव l बाक़ी जउन तुम्हारि मरजी l थ्वारा लिखे का थ्वारै समझेव, जादा दिमाग न लगाएव l राम - राम सुकुल भउकापुर ते
दिसंबर -------- 1. मुरझाई किरनें सुबह से ही अवसाद की गठरी लेकर बैठ जाती हैं बरोठे में रह रह कर खांस उठता है मुँह लटकाए मरियल दिसंबर l 2. खा खा कर बथुआ के पराठे रात मुटल्ली कितना तो धीरे धीरे चलती है आठ बजा देती है जाते जाते घोड़े पर सवार दिन कब आया कब गया कुछ पता ही नहीं चलता सलूका पहने, अलाव तापता ये दिसंबर भी ना ! 3. नीच कीच से कमल तोड़ते हुए बच्चे ने ध्यान रखा कीच हांथों पर नहीं लगा यह क्या कम है कुछ पंखुरियां तोड़ कर ही मगन है हाथ को हाथ नहीं सूझता और कमल खिले हैं सरोवर से पहाड़ तक भारी कुहरा छाया रहा इस दिसंबर l 4. काली हरी बाजरे की रोटियाँ रोज खाते हुए मन उकता जाता बदलाव के लिए लाल गुलाबी ज्वार की, थोड़ा मुलायम पर मुझे कभी नहीं भाईं फंडा यह था कि बासी रोटी बाजरा ताज़ी ज्वार की चाय के साथ इन रोटियों ने हमेशा चलने से मना किया जब कभी दूध की कमी हुई तो बाजरे की रोटियाँ गला छीलती हुई बमुश्किल पेट में घुस पाईं बथुए का सगपहिता ताज़ी रोटियों के साथ और बासी को गरम दूध के कटोरे में में भुरभुरा कर डाल देने का कॉम्बिनेशन सर्वमान्य, सर्वप्रिय रहा इन्ही काली - गुलाबी
उससे मिले बहुत दिन बीते अब मिलने के कहाँ सुभीते वो छूटा जब छूटा गांव क्या सखि प्रेमी? नहीं ' अलाव ' - प्रदीप शुक्ल देखो मरियल पीली काया ये अपना क्या हाल बनाया क्या तो था इसका रँग रूप क्या सखि प्रेमी? ना सखि ' धूप ' - प्रदीप शुक्ल जाने को बिलकुल तैयार खुशियाँ सारी रहीं उधार अगले साल लगेगा नंबर क्या सखि साजन? नहीं ' दिसंबर ' - प्रदीप शुक्ल कहने को वो जल्दी आए और सुबह देरी से जाए पर ठन्डे हैं सब हालात क्या सखि साजन? ना सखि ' रात ' - प्रदीप शुक्ल
दिसंबर में गांव ---------------- दूर तक फैली हरी कालीन देखो खेत में हँसते हुए ताजे हरे किल्ले दौड़ता पानी बगल की नालियों में हँसे सूरज कान की दो बालियों में उड़ गई चादर हवा में कोहरे की पेंड़ से छनकर गिरे हैं धूप के बिल्ले खेलता बच्चा बड़ा कनटोप बांधे खेत में बगुला खड़ा है मौन साधे जा रहे स्कूल बच्चे टोलियों में मेड़ पर कुछ सूंघते से घूमते पिल्ले पानी के दस्ताने किसी ने हाँथ में पहने और मिट्टी के बने जूते लगे बहने आ रही खुश्बू रखी है पोटली जो आज अम्मा ने बनाए उड़द के चिल्ले - प्रदीप शुक्ल
तुमको क्या लगता है साधो? ---------------------------- तुमको क्या लगता है साधो नए साल में क्या बदलेगा ? उजड़े हुए गाँव के बाहर झुलस रहा पीपल का बिरवा जूठे पत्तल शहर चांटने चले गए सब चिरई चिरवा लौट सके वापस फिर सुग्गा क्या ऐसा मौसम बदलेगा ? तुमको क्या लगता है साधो नए साल में क्या बदलेगा ? सहमी सी रहती जो मैना क्या वो खुल कर गा पाएगी या फ़िर नए साल में भी वो अपने पंख नुचा आयेगी बाजों की पंचायत में अब खापों का क्या सुर बदलेगा ? तुमको क्या लगता है साधो नए साल में क्या बदलेगा ? ' रामचंद्र ' कहता ' अब्दुल ' कुछ छुप छुप कर है प्लान बनाता ' अब्दुल ' कहता ' रामचंद्र ' क्यों जोर जोर से शंख बजाता ' रामचंद्र - अब्दुल ' के मन का खतरनाक संशय बदलेगा ? तुमको क्या लगता है साधो नए साल में क्या बदलेगा ? - प्रदीप शुक्ल ( रिपोस्ट )
अभिलाषा ---------- सुख दुख कितने लिए घूमता है झोली में डाल सोच रहा हूं क्या लाएगा आने वाला साल नए वर्ष है मुझको तुमसे इतनी सी अभिलाषा मेरे दिल में ज़िंदा रखना बस थोड़ी सी आशा पैसा भले न लाना लेकिन लाना नहीं बवाल अमरीका से कहना थोड़ा गुस्सा कम दिखलाए किम पागल से कहना भइया ज्यादा मत पगलाए ट्रम्प और किम बनें न देखो इस धरती के काल रामदीन के लिए रोज का खाना लेकर आना फिर चुनाव में जिसको चाहो तुम उसको जितवाना अगर हो सके महंगाई की धीमी रखना चाल - प्रदीप शुक्ल
पुराने साल की फेयरवेल पार्टी ------------------------------- पुराने साल की विदाई, मतलब धूम धड़ाका, संगीत और खाना l तो साहबान हम लोग भी डीजल रथों में सवार कच्चे रास्ते पर धूम धडाम करते यानी गड्ढों में गिरते पड़ते पहुँच गए, पुराने वर्ष को विदा करने l पुराना साल बेचारा आख़िरी साँसें ले रहा था l हमारे पहुँचते ही कदम के पेंड़ का सहारा लेकर खडा हो गया l मरियल सी आवाज़ में बोला, अब आ ही गए हो तो कुछ खा पी कर जाना l हमने उसकी बात नहीं टाली l पहले भुने हुए आलू पर हाँथ साफ़ किये फिर शकरकंद पर l शकरकंद खाने के बाद गाजर कुछ कम मीठे लगे लेकिन हमने इस बात का बहुत बुरा नहीं माना l गाजर ने भी नहीं माना होगा, ऐसा मेरा अनुमान भर है l हाँ इसके पीछे - पीछे आई मूली ज़रा सा गैरमामूली बर्ताव करते हुए जबान को कुछ तीखा सा जवाब दे गई l हमने भी उधर ज्यादा ध्यान न देते हुए फिर से गाजर पर थोड़ा ध्यान दिया l फिर मटर महारानी ने तो मूली के बारे में सोचने का मौक़ा तक नहीं दिया l अभी यह सिलसिला चल ही रहा था कि पम्प से गिरते हुए पानी के संगीत ने अपनी तरफ ध्यान खींचा l टिटिहरी ने उसमे जोरदार संगत की और मोरों ने समवेत स
लालु ----- उठि जाव लालु उठि जाव लालु द्याखौ आवा है नवा सालु चिरई चिरवा सब खोजि रहे तुमका, तुम परे रजाई मा पढ़ि रहा पहाड़ा जाड़ु अबे ठंडक धरि दिहिसि दहाई मा कोहिरा मा सूरजु अटकि रहा वहु पूछि रहा तुमते सवालु उठि जाव लालु उठि जाव लालु द्याखौ आवा है नवा सालु आंखी ख्वालौ - आंखी ख्वालौ अब सोए ते ना कामु बनी तुमरे दूधे खातिर द्याखौ कूकुर - बिलारि मा रारि ठनी अब जगौ किरनियाँ आय गईं बइठीं सिरहाने छुएं गालु उठि जाव लालु उठि जाव लालु द्याखौ आवा है नवा सालु ई नए साल मा बचुआ तुम बसि राह चलेव सच्चाई की थ्वारा अपने मन ते स्वाचौ अब उमिरि नहीं गभुआई की कोसिस कीन्हेव लल्ला हमार तुम चलेव न सपनेव मा कुचालु उठि जाव लालु उठि जाव लालु द्याखौ आवा है नवा सालु - प्रदीप शुक्ल
सकठ ------ सबसे पहले ख़त्म होती थीं मूंगफली की धुंधिया फिर रामदाना और चने की ( अँधेरे में मूंगफली और चने की धुंधिया हांथों से पहचानना थोड़ा मुश्किल था l जो बिलकुल गोल हो, वह चने की l मूंगफली की धुंधिया कभी भी पूरी गोल नहीं होती ) फिर क्रमशः गेंहूं के लड्डू, तिल की धुंधिया, लईया का धूंधा, जोन्हरी का धूंधा ( इसका साइज़ इतना बड़ा होता था कि हम बच्चे दोनों हाथों से ही पकड़ पाते थे ) बाजरे के लड्डू और सबसे आखिर में ख़त्म होते थे चावल के लड्डू l इनके ख़त्म होते होते जाड़ा भी लगभग ख़त्म हो चलता l चावल के लड्डू तो इतने खतरनाक ढंग से कठोर हो जाते थे कि कभी कभी खोपड़ी फोड़ने के काम भी आते l आज गांव में घुसते ही जब एक चार - पांच साल के बच्चे को तीन बुस्कट के ऊपर दुई ठो सूटर पहन कर साथ में एक लाल रँग का चीकट कनटोप बांधे हुए नाक बहाते और लईया का धूंधा खाते हुए देखा तो समझ गया कि सकठ आसपास ही होगी l एक बार मैं इसी वेश भूषा में एक बड़ी डहरी की तली में रह गए जोंधरी के धूंधे निकालते हुए सर के बल डहरी के अन्दर गिर गया था l
कन्हैया लाल नंदन, ' इंडिया टुडे साहित्यिक वार्षिकी ' और कोट का कमाल ------------------------------------------------------------------------------ 1. लखनऊ एअरपोर्ट में सिक्योरिटी चेक के पहले ही दाईं तरफ एक किताबों की दूकान हुआ करती थी जो इस बार गायब मिली l समय था तो ऊपर तक झाँक आए पर किताबों का छोटा सा कोना जो कम से कम होना ही चाहिए था,अब नहीं था l लखनऊ एअरपोर्ट पर हिन्दी की किताबें काफी संख्या में उपलब्ध हुआ करती थी l कुछ हिन्दी की पत्रिकाएँ भी मिल ही जाती थीं l खैर, मेरे है ण्ड बैग में कन्हैया लाल नंदन जी अपनी आत्मकथा ' गुजरा कहां कहां से ' के कवर पेज पर ईत्मीनान से मुस्कुरा रहे थे l अचानक मुझे फेसबुक मित्र और मेरे प्रिय व्यंग्यकार अनूप शुक्ल जी की मुस्कराहट याद आ गई l अनूप जी नंदन जी के भांजे हैं और नंदन जी अनूप जी के बिलकुल मामा लग रहे थे l फेसबुक पर अनूप जी ने इतनी बार याद दिलाया है कि मैं देखते ही पहचान गया l एअरपोर्ट ही अक्सर मुझे पाठक बनने का सौभाग्य प्रदान करता है l तो नंदन जी के साथ हम भी उनके गांव परसदेपुर में बाबा देवीदयाल तिवारी के साथ हेडमास्टर श
उल्लू दादा ----------- उल्लू दादा की देखो आँखें तो बहुत बड़ी इतनी बड़ी कि जैसे लटकीं दो दीवार घड़ी फिर भी देख न पाएं दिन में, मंटू फिर बोला और हँसी में बन्दर ने थोड़ा सा विष घोला सबको बुरा लगा मंटू का यह भौंड़ा अंदाज़ उल्लू दादा ने सोचा कुछ करना होगा आज दादा बोले, “ हीरो तोता पूछो गूगल से कैसे भी हो मैं भी देखूंगा दिन में कल से “ मंटू के जाते ही हीरो बोला, उल्लू दादा! पहले तो यह समझें दिन में होती है क्या बाधा? सोन गिलहरी लैपटॉप लेकर जैसे ही बैठी सारी बात समझ कर उसने गर्दन थोड़ी ऐंठी हीरो भैया दादा की है पुतली बहुत बड़ी तेज रौशनी में भी लेकिन कभी नहीं सिकुड़ी बस इसके कारण ही पलकें हो जाती हैं बंद और देखने का दिन में छिन जाता है आनंद उल्लू दादा सुनकर थोड़ा मंद मंद मुस्काए बोले ' अमेजान ' से कह दो काला चश्मा लाए अगले दिन दुपहर में दादा बोले मंटू आओ और आज के समाचार तुम मुझसे सुनते जाओ पढ़ते हैं अखबार खटाखट दिन में उल्लू दादा लोग कह रहे उल्लू दादा बुद्धिमान हैं ज्यादा ll - प्रदीप शुक्ल
चीची का पनीर ---------------- चीची चूहा और पनीर बात ज़रा सी है गंभीर चीची के चाचा लाए हैं एक कटोरी खीर चीची का मन लगा हुआ है बस पनीर के टुकड़े पर चिंता की रेखाएं उसके खिंची हुई हैं मुखड़े पर दिन भर से पनीर खाने को मनुआ बहुत अधीर मम्मी कहती चीची बेटा खीर रखी है कबसे मुझको तो पनीर खाना है चीची कहता सबसे डोल रहा है आज सुबह से भर अँखियों में नीर चाचा बोले भूख लग रही आजा चीची बेटा और खीर को बस पनीर के चारों तरफ लपेटा बड़े मजे से अभी खा रहा चीची, खीर - पनीर l - प्रदीप शुक्ल
देबू की किताबें ---------------- अलमारी से निकल किताबें बाहर आती हैं देबू के ही साथ बैठकर खाना खाती हैं खाना खत्म हुआ तो पुस्तक हिस्ट्री की बोली देबू तुमको पता आज मैं घंटे भर सो ली सोती हूँ मैं जब तक मम्मी नहीं उठाती हैं चित्रकला की पुस्तक ने कुछ ऐसे रंग बिखेरे किरनें आकर बैठ गईं बिस्तर पर खूब सबेरे और बैठकर परियों वाली कथा सुनाती हैं देबू को जो सबसे प्यारी पुस्तक है विज्ञान की छुपी हुई है आज रूठ कर ओट लिए सामान की देबू का मुँह देख किताबें भी मुस्काती है - प्रदीप शुक्ल
लागति अबकी रुकि कै जाई परा है पट्ठा ओढ़ि रजाई खिचरिन मा पढ़ि रहा पहाड़ा का सखि साजन? नाहीं, ' जाड़ा ' - प्रदीप शुक्ल जब वहु रहै, न कुछौ सुझाय दुपहरि तक घरु छोडि न जाय सुबह साम गांसे है मोहरा का सखि साजनु? नाहीं ' कोहरा ' - प्रदीप शुक्ल जब ते आवा, है अघवाय याको मिनट क दूरि न जाय बिस्तर बिलकुल बना अखाड़ा का सखि सजना? नाहीं ' जाड़ा ' - प्रदीप शुक्ल भद्दर जाड़े में वह आया मेरे खातिर रहा पराया  मिलने वालों का था रेला, क्या सखि साजन? ' पुस्तक मेला ' उनको वहाँ नहीं था जाना मिल न रहा अब कोई बहाना हुआ क्या वहाँ यही बता जा क्या सखि साजन? न, ' डी. राजा ' - प्रदीप शुक्ल
नाव, नदी और छुटकू  🚣‍♂️ ----------------------- नदी किनारे गांव गांव में छुटकू रहता है छुटकू का मन वहीं नाव में डोला करता है उसका मन है नदिया के संग दूर देश जाऊं रंग बिरंगी ढेर किताबें लेकर मैं आऊँ दिल की बातें अक्सर वह पानी से कहता है पढ़ने लिखने से आएगा उसको ज्यादा ज्ञान और ज्ञान से बन पाएगा वह बेहतर इंसान दादू कहते ज्ञान किताबों में ही बहता है छुटकू की बातें मछली को लगतीं बहुत भली उसे देखकर छोटी मछली आती तुरत चली सूरज भी पानी में उसके संग संग चलता है - प्रदीप शुक्ल
नीलू साइकिल --------------- नीलू साइकिल निकली घर से पहुँच गई मैदान में तितली से वह शर्त लगा बैठी थी अपनी शान में खुली सड़क थी साइकिल दौड़ी खूब भरा फर्राटा तेज हवा थी बारिश थी रस्ते में था सन्नाटा मुश्किल थी तितली को लेकिन जुटी हुई जी जान से भीग रहे थे पंख और तितली भी थक कर चूर हुई दौड़ रही साइकिल मन में कुछ ज्यादा ही मगरूर हुई नाजुक तितली कांप रही थी हवा लग रही कान में पीछे मुड़कर साइकिल ने तितली को हँस कर घूरा फिसल गई वह तभी अचानक दौड़ सकी ना पूरा तितली आगे निकल चुकी थी और गा रही तान में - प्रदीप शुक्ल
पापा का चश्मा --------------- कहाँ गया वह अभी यहीं था खोज रहे हैं पापा पापा को ऑफिस जाना है पूरा घर अब काँपा बाथरूम जाने से पहले पेपर पढ़ कर आया मुझे याद है शेव किया मैंने, तब उसे लगाया अभी उसी से देखा था अपना भरपूर मुटापा देखो कहीं खेलता होगा वही तुम्हारा बेटा वह तो सोकर अभी उठा मम्मी ने तुरत लपेटा परेशान पापा ने पूरा घर पल भर में नापा तभी अचानक मम्मी ने पापा के सर को देखा नज़र आ गई तुरत उन्हें चश्मे की काली रेखा घूर रही हैं मम्मी पापा दिखा रहे अपनापा - प्रदीप शुक्ल
पीलू तितली ------------- और एक दिन पीलू तितली नहीं गई स्कूल जैसे ही वह घर से निकली नन्हे पंख पसारे एक फूल का बच्चा उसको रोता मिला किनारे पीलू ने आंसू देखे तो वहीं गई सब भूल रोता बच्चा बोला, मेरा रंग नहीं चमकीला मुहँ बिचकाती मुझे देखकर पिंकी, नीलू, शीला पीलू, दोस्त तुम्हारी कहतीं मुझको नामाकूल धूल झाड़कर बच्चे को सिर से उसने नहलाया और प्यार की खुशबू से उसके मन को महकाया खिल खिल कर हँस रहा अभी तो छोटा सा वह फूल - प्रदीप शुक्ल
रिंकू और नया साल --------------------- नया साल रिंकू के सपने में चलकर जब आया आया, आकर बैठ गया फिर घंटों तक बतियाया बोला, मैं तो साथ रहूँगा पूरे बरस तुम्हारे खुश रक्खूँगा तुम्हे, दोस्ती मुझसे कर लो प्यारे और उछलकर बड़े प्यार से उसको गले लगाया रंग बिरंगे कपड़े लाकर दूंगा तुमको जाड़े में धूप सेंकते मिल जायेंगे पिल्ले तुमको बाड़े में खड़ा रहेगा दूर कहीं सूरज तुमसे शरमाया गरमी में सूरज को थोड़ा ले आऊँगा पास आम तुम्हारे लिए लाऊँगा ताजे बिलकुल ख़ास छुट्टी होगी, सुबह तुम्हे जाएगा नहीं जगाया बारिश की बूंदों से हमने कर रक्खी है बात पूरे तीन महीने होगी बस रिमझिम बरसात सपना गायब, रिंकू – रिंकू भैया जब चिल्लाया - प्रदीप शुक्ल
दुइ महिना होइगे हैं आय मनु भरिगा अब वापस जाय हम वहिके मिजाज ते ताड़ा सखी, मंसवा? नाहीं, ' जाड़ा ' - प्रदीप शुक्ल
चुनावी ऋणपत्र और अलाने-फलाने अच्छा, चुनावी ऋणपत्र ( इलेक्टोरल बॉन्ड ) का खेला भी कमाल का है। भारतीय राजनीति के महान अर्थशास्त्री श्रीमान अरुण जेटली जी के चाहने वाले सभी दलों में ऐसे ही नहीं भरे पड़े हैं। यह उन्ही का दिमागी बच्चा है। इसको सरल भाषा में ऐसे समझिए। एक हैं अलाने जिनको पाल्टी पूरे चुनाव भर पानी पी-पी कर गरियाती है। दुनिया जानती है कि अलाने के नंबर दो के धंधे हैं। पाल्टी के अब्बा, ताऊ, चाचा, भतीजा उसको सुबह - शाम गाली देने के बाद नाश्ता करते हैं। पर मुश्किल यह है कि न तो अलाने का काम पाल्टी के बगैर चल सकता है और न पाल्टी का काम अलाने के बगैर। तो बस इसी के लिए इलेक्टोराल बॉन्ड नाम का खेला, खेला जाता है। आइये देखते हैं कैसे। अलाने को अपना काम कराने के लिए ( मतलब जनता का खून चूसने के लिए ) पार्टी ( सरकार पढ़ा जाये ) को सौ ( करोड़ आदि पढ़ लिया जाये ) रुपये का चढ़ावा चढ़ाना है। बैंक के पैसे अलाने पार्टी को देना नहीं चाहते। एक तो बैंक मे पैसे डालने-निकालने की उनकी आदत नहीं और दूसरे कल को बात खुले तो पाल्टी को दिक्कत हो जाने का। अच्छा खैर, तो अलाने ने एक सौ दस रुपये के बोरे
1962 : हार की जीत ---------------------- आज से ठीक सत्तावन बरस पहले 21 नवम्बर, 1962 को चीन ने हमारी नाक जमीन पर रगड़ कर एकतरफ़ा युद्ध विराम की घोषणा कर दी थी l जाहिर है आज का दिन हमारे लिए कोई गौरवशाली दिन तो है नहीं l हमारे लिए यह इतिहास का काला दिन है, एक भुला देने वाली तारीख l एक महीने चले इस युद्ध में चीन ने हमें धूल और बर्फ दोनों चटाई l हम वीरता से लड़े और बुरी तरह हारे, लेकिन क्या हम 1962 की लड़ाई को सिर्फ़ चीन की जीत और भारत की हार के रूप में ही याद करते रहेंगे? किंग्स कॉलेज, लन्दन की इतिहास की प्रोफ़ेसर बी जी रिचर्ड इस युद्ध के दूसरे आयाम पर बात करती हैं l वो कहती हैं कि जब नार्थ ईस्ट फ्रंटियर एजेंसी " NEFA " ( आज का अरुणाचल प्रदेश ) से सारे भारतीय अधिकारी और कर्मचारी अपने अपने ऑफिस छोड़ कर भाग गए, तब वहाँ की जनता को भय था कि चीन की सेना उनके साथ न जाने क्या क्या करेगी? अब युद्ध विराम के बाद भारतीय अधिकारी भी वापस आने में बहुत भयभीत थे कि न जाने वहाँ की स्थानीय जनता का व्यवहार उनके साथ कैसा होगा ? पता चला कि चीन की सेना के जवानों ने उस दौरान किसी भी नागरिक से बदसल
धरती का बच्चा नन्हा बीज आलसी था था सबसे छिपकर सोया चंचल बहती हवा, धूप के सपनों मे था खोया नींद खुली, आँखों को मलता जब वह बाहर आया धूल, धुआँ, चिड़चिड़ी हवा को पाकर वह घबराया लगा छींकने, खाँसा फिर बीमार हो गया गोया नन्हा बीज बना जब पौधा बहुत दिनों तक रोया - प्रदीप कुमार शुक्ल
घोड़ा ( बाल कविता ) एक नेता ने ख़रीदा एक घोड़ा गरीब के सिर पर नारियल फोड़ा घोड़ा माल खाता रहा गरीब सिर सहलाता रहा फ़िर घोड़े ने नेता को उछाल कर गिराया एक और नेता को पीठ पर बिठाया अब घोड़ा ख़ुद एक नेता है सारी घास ख़ुद लपक लेता है आजकल मुंबई मे है मेला और घोड़ा नहीं है अकेला। - प्रदीप कुमार शुक्ल
पुराने वाले दोस्त कई पुराने दोस्त कभी जब मिलने आते हैं बीते हुए समय को फिर से वापस लाते हैं दिल्ली से आया है, कोई आबूधाबी से मन के द्वार खुले हैं सारे मन की चाबी से रात-रात भर बैठे जाने क्या बतियाते हैं कनपुरिया जब बोले तो बोलता चला जाये और धामपुर वाला धीरे-धीरे मुसकाए सब मिलकर फिर यादों की सिगरेट सुलगाते हैं एक बिहारी सब पर भारी कभी नहीं बदला पाँच बजे ही उठकर लंबू पंद्रह मील चला सब पकवान छोड़ कर लिट्टी-चोखा खाते हैं कुछ जो छिपे रहे बरसों तक आए हैं खुल कर कुछ हैं फंसे लेह मे करते कॉल वीडियो पर आ न सके जो, देख-देख कर बस ललचाते हैं कैंसिल कर के टिकट किसी की, सबने रोक लिया और किसी ने याद किया फिर सारी रात पिया दुख के जबड़ों से हम यूं ही खुशी चुराते हैं। - प्रदीप कुमार शुक्ल
ओ! बचपन ------------ मन के अन्दर बच्चा जब तब, शोर मचाता है ओ! बचपन तू कितना तो यादों में आता है हंसी कम हुई आंसू भी आने से डरते हैं सपनों की गलियों से हम अब कहां गुजरते हैं बूढ़ा मन बच्चे मन को अक्सर धमकाता है उछल उछल कर चलना हमने कब का छोड़ दिया ख़ुशी भरा गुब्बारा हमने कब का फोड़ दिया कभी कभी ये बच्चा अंदर से चिल्लाता है - प्रदीप कुमार शुक्ल
नवगीत महोत्सव से लौटते हुए आयोजक को हमने जी भर खुले आम गरियाया और इस तरह फिर हम सबने अपना धर्म निभाया पहले तो नखरे पेले, हम कहीं नहीं अब जाते ट्रेन छूटती देखी तो फिर बोला, हम हैं आते ज्ञान गठरिया अहंकार के कंधों पर उठवाया बना माथ पर व्यस्त लकीरें हमने उन्हे दिखाया सुबह-शाम बस हम भकोस कर लड्डू पूरी खाते मगर भला तारीफ़ों के दो शब्द कहाँ कह पाते मीठी खीर फेंक हमने उसको कड़वा बतलाया जहर बुझे तीरों को हमने अंधाधुंध चलाया अपनी ढपली पर हम हरदम अपना राग बजाते सदा दूसरे की सरगम पर अपने कान खुजाते और किसी की नहीं सुनी बस अपना गाल बजाया सबको बौना खुद को हमने सात हांथ बतलाया - प्रदीप कुमार शुक्ल
# एक_मामूली_यात्रा_का_विशद_आख्यान #1 पिताजी की उम्र पचासी पार है। यह बात वह रोज सबको बताते हैं लेकिन खुद को अट्ठावन से ज्यादा नहीं समझते। उनकी ऊर्जा को देखते हुए मुझे वह कभी-कभी अट्ठारह से ज्यादा के नहीं लगते हैं। अच्छा खैर! ' अच्छा खैर! ' उनका तकिया कलाम है। मतलब क्षेपकों को विराम देते हुए मुख्य कहानी पर फिर से आया जाय। अच्छा खैर ! वह कल गाँव गए थे, सो पूरा किस्सा उनको बताना है, सिलसिलेवार। सुबह मॉर्निंग वाक के लिए निकलते हुए जब मैंने खुद को घिरता हुआ महसूस किया तो इस वादे के साथ भाग खड़ा हुआ कि बस अभी लौट कर आया। हालांकि वह चाह रहे थे कि संक्षिप्त संस्करण अभी ही सुन लिया जाये। लौटते ही मैं अखबार लेकर बैठ गया और आख्यान चालू आहे। अखबार भला कैसे पढ़ता, मैं तो पिताजी के साथ गाँव चला गया था। जिस यात्रा मे उन्हे कल दस घंटे लगे वह उन्होने मुझे घर बैठे चालीस मिनट मे करवा दी। अच्छा खैर, आप लोग उनकी यात्रा मे सम्मीलित होना चाहें तो आराम से दिमाग को सुस्ताने के लिए निकाल कर मेज पर रख लीजिये और आंखे बंद कर हुंकारी भरते रहिए। जारी..... [ चेतावनी : यह कोई जबर्दस्त घटनाओं
लालू की दुनिया ----------------- कथा, कहानी, किस्सों की दुनिया में होता है रोज रात में लालू जब दादी संग सोता है फूलों सजे महल में सुन्दर परियां रहती हैं रसगुल्ले के पेंड़ दूध की नदिया बहती हैं लालू पूछे दादी, क्या यह सच में होता है? उत्तर देने से पहले दादी सो जाती है जगती भी है तो कुछ कहने से कतराती है लालू के किस्से में आगे बच्चा रोता है बच्चा जो महलों के आगे कूड़ा बीन रहा रोटी का टुकड़ा कुत्ते के मुँह से छीन रहा रोता बच्चा किस्से में फिर बर्तन धोता है - प्रदीप शुक्ल