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#1
पिताजी की उम्र पचासी पार है। यह बात वह रोज सबको बताते हैं लेकिन खुद को अट्ठावन से ज्यादा नहीं समझते। उनकी ऊर्जा को देखते हुए मुझे वह कभी-कभी अट्ठारह से ज्यादा के नहीं लगते हैं। अच्छा खैर!
' अच्छा खैर! ' उनका तकिया कलाम है। मतलब क्षेपकों को विराम देते हुए मुख्य कहानी पर फिर से आया जाय।
अच्छा खैर !
वह कल गाँव गए थे, सो पूरा किस्सा उनको बताना है, सिलसिलेवार। सुबह मॉर्निंग वाक के लिए निकलते हुए जब मैंने खुद को घिरता हुआ महसूस किया तो इस वादे के साथ भाग खड़ा हुआ कि बस अभी लौट कर आया। हालांकि वह चाह रहे थे कि संक्षिप्त संस्करण अभी ही सुन लिया जाये।
लौटते ही मैं अखबार लेकर बैठ गया और आख्यान चालू आहे। अखबार भला कैसे पढ़ता, मैं तो पिताजी के साथ गाँव चला गया था। जिस यात्रा मे उन्हे कल दस घंटे लगे वह उन्होने मुझे घर बैठे चालीस मिनट मे करवा दी।
अच्छा खैर, आप लोग उनकी यात्रा मे सम्मीलित होना चाहें तो आराम से दिमाग को सुस्ताने के लिए निकाल कर मेज पर रख लीजिये और आंखे बंद कर हुंकारी भरते रहिए।
जारी.....
[ चेतावनी : यह कोई जबर्दस्त घटनाओं से लैस मजेदार किस्सा नहीं है, केवल एक खाली आदमी के दिनचर्या का आख्यान है। आप बेहद बोर भी हो सकते हैं। ]

#2
बचपन मे जब हम भाई लोग अकेले या भाई-भाई किसी रिश्तेदार के घर जाते थे, जहां पिताजी साथ नहीं होते तो हमे लौटकर पूरा यात्रा वृतांत विधिवत ऐसे ही सुनाना होता।
वहाँ यह कह देने से काम नहीं चलता कि हम गए और फलाने-फलाने मिले, नाश्ता पानी किया ये मुख्य बातें हुईं, बस हम लौट आए। नहीं हमे शुरू करना होता कि जब हम घर से निकले तो क्या समय रहा होगा, स्टेशन तक कैसे पहुंचे, गाड़ी किस प्लेटफार्म पर आई, रास्ते मे कुछ खाया-पिया कि नहीं, वहाँ उतरकर फिर उनके घर कैसे पहुंचे, घर मे सबसे पहले कौन मिला? यहाँ तक कि उसने क्या कपड़े पहन रखे थे? ....
हमारे बाबाजी ( दादाजी ) भी शाम को पिताजी के ड्यूटी से लौटकर घर पहुँचते ही पूरी तन्मयता से पूरे दिन की विशद दिनचर्या वर्णित करते थे।
बात यहाँ से शुरू करते, भैया तुम्हारे लड़के कुछ नहीं सुनते मेरी। जो जरा सा कह दो, रामू, वह ज़ोर से चिग्घाड़ेगा, दिन भर बस रामू - रामू ही चिल्लाना, किसी और को काम मत बताना। अब रामू कहना थोड़ा आसान लगता है, तो उसी का नाम जबान से निकलता है। भूले से भी अगर मैं कह दूँ, बेटा मेरी उंगली कट गयी है, जरा सा उस पार मूत दो, तो बस, जैसे डाल पर से गिर पड़ेगा। अरे, अभी तो हम मूत कर आए हैं अब हम फिर मूतें। और फलाने से मूतने के लिए काहे नहीं कह रहे?
भैया हम बहुत परेशान हैं तुम्हारे लड़कों से......
लो, बात कहाँ तो पिताजी की हो रही थी, होने लगी उनके पिताजी की। आखिर बेसार तो वही है ना यहाँ भी।
अच्छा खैर
पिताजी को वैसे तो जाना होता है गाँव की तरफ एक तारीख को। चाहे पानी बरसे चाहे ओले पड़ें। उनकी पेंशन का पैसा कुछ घंटों से ज्यादा पोस्ट ऑफिस मे रुक नहीं सकता। अब पिताजी पेंशन लेने गाँव क्यों जाते हैं जबकि शहर मे हमारे घर के बिलकुल बगल मे ही पोस्ट ऑफिस है। इसके पीछे भी एक कहानी है।
मुझे लगता है मुख्य कहानी के शुरू होने से पहले मैं ही आप लोगों को इतना बोर कर दूंगा कि पिताजी को अपना किस्सा शुरू करने की अवश्यकता ही नहीं पड़ेगी।
लेकिन दोस्तों, यह क्षेपक तो मैं सुनाऊँगा ही। बिना सुनाये आगे कैसे बढ़ेंगे। आखिर पिताजी का बेटा हूँ, सुना नहीं सकता तो क्या लिख भी नहीं सकता।
जारी ....

#3
हाँ तो पिताजी अपनी पेंशन लेने गाँव के पास एक कस्बे मे जाते हैं। जबकि चाहें तो यहीं शहर मे अपने घर के बगल वाले पोस्ट ऑफिस से ले सकते हैं। आपकी तरह मैंने भी जानना चाहा। तो उसका कारण यह है कि शहर मे रहते हुए सरकार आपको मेडिकल सुविधा देती है। डॉक्टर और दवाएं मुफ्त उपलब्ध कराती है। पर यदि आप ग्रामीण क्षेत्र मे रहते हैं तो उसकी जगह आपको सरकार पाँच सौ रुपये अलग से मेडिकल भत्ता देती है। भले उसको लाने के लिए पाँच सौ रुपये गाड़ी, पेट्रोल, ड्राईवर मे खर्च हो जाएँ। अब चूंकि ये खर्चे सीधे उनकी जेब से नहीं होते तो इसके बारे मे उन्हे कोई ध्यान देने की जरूरत महसूस नहीं होती।
पिताजी को जितना झूठ, चालाकी और बेईमानी से नफरत है, पैसे से उतना ही प्यार करते हैं। पैसों खासकर नकद पैसों के लिए उनके दिल मे विशेष स्थान है। उनको कितनी पेंशन मिलती है यह हम क्या हमारी अम्मा भी नहीं जानतीं। उधर पोस्ट ऑफिस से पैसे आए नहीं कि इधर बैंक मे जमा। पानी वानी वे बाद मे पीते हैं।
अभी एक दिन कुछ रुपये यहीं अस्पताल मे काम करने वाले अपने भांजे को दिये दोपहर मे, बैंक मे जमा करने के लिए। सर्वर डाउन होने के कारण उस दिन पैसे नहीं जमा किए जा सके। शाम को जब रशीद तलब हुई तो यह बात उन्हे पता चली। भांजे ने कहा, मामा यहीं ड्राअर मे पैसे रख देता हूँ। कल जमा कर दूंगा। पिताजी ठीक है, कह कर आ तो गए पर मन उनका उन्ही पैसों पर अटक कर रह गया। खाना खा कर काफी देर बिस्तर पर लेटे रहे पर नींद कहाँ आने वाली थी। आखिरकार उठ कर अस्पताल की तरफ आए तब तक भांजा जा चुका था। उन्होने उसे फोन किया। अरे तुम कहाँ पहुंचे? बस मामा रास्ते मे हूँ घर जा रहा हूँ। नहीं, लौट आओ यार अभी तुम से काम है, व्यग्रता से पिताजी बोले। बेचारा वह आधे रास्ते से लौट आया।
उसके आते ही पिताजी बोले, दोस्त वो पैसे मुझे दे दो, मुझे नींद नहीं आ रही है। कहीं तुमसे खो गए तो तुम्हारे ऊपर मैं कुछ सख्ती भी नहीं कर पाऊँगा। तुम तो कह दोगे, मामा खो गए।
फिर जाकर कहीं आराम से पिताजी उस दिन सो पाये।
अच्छा खैर, इस एक तारीख को वह लखनऊ मे न होने के कारण अपनी पेंशन न ला सके। अगले दिन शनिवार फिर रविवार गुजरा और सोमवार को तो उन्हे जाना ही था।
ड्राईवर के साथ वह पोस्ट ऑफिस तक तो पहुंचे फिर वहाँ से ड्राईवर को वापस भेज दिया कि तुम जाओ, मैं थोड़ा कुछ अपना काम करता हुआ शाम तक आऊँगा।
जारी .....

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