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Showing posts from September, 2018
गांव का एक लड़का ( 21 ) बी एससी की परीक्षाएं शुरू हुईं l अब तक हमने नक़ल नाम की चिड़िया नहीं देखी थी l यहाँ तो पूरा अजायबघर था l कोई सिटिंग अरेंजमेंट नहीं l जो जिसके साथ बैठना चाहे बैठे l पर्ची बनाने की जहमत उठाने की भी जरूरत नहीं, एक ही सब्जेक्ट की कई राइटर्स की किताबें लाने की छूट l यहाँ पर फेल होने की संभावना तभी बनती थी जब आप किताब सामने रख कर भी सवालों में प्रयुक्त एक दो शब्दों को साधकर ईरान तूरान की कहानी लिख दें या आपकी अंग्रेजी इतनी फर्रा टेदार हो कि मूल्यांकनकर्ता को उर्दू लगने लगे, या फिर आपको ईमानदारी का कीड़ा काट जाए l हमारे मामले में ये तीनों कारण बराबर - बराबर प्रतिशत में मौजूद रहे l जितने सवाल समझ आए उनका उत्तर मैंने देवनागरी में लिखा, बाक़ी अपनी फर्राटेदार अंग्रेजी में किताबों के फटे हुए पन्ने, जो मित्रों ने तरस खाकर दिए उनको वैसे ही छाप दिया l पृष्ठों को क्रमवार लिखने की जरूरत भी नहीं समझी l किसी - किसी दिन ईमानदारी के कीड़े ने भी काटा l परिणाम आशानुरूप ही रहा l परीक्षकों को लगा इस प्रखर बुद्धि बालक को इसी कॉलेज परिसर में अभी और समय व्यतीत करना चाहिए l मैं तीनों
गांव का एक लड़का ( 20 ) यह सिलसिला लगभग ढाई महीने तक चला l शाम को सात - आठ बजे खाना खा कर घर लौटता l पूरा दिन पेटियां ढोने के बाद रात में कुछ होश नहीं रहता l सुबह उठकर फिर नौकरी पर l धीरे - धीरे मन ऊबने लगा l सोचता कि क्या यही करना है मुझे जीवन भर? अन्दर से आवाज आती, नहीं l पर करना क्या है? यह आवाज न अन्दर से आती न बाहर से l फिर एक दिन पेपर में रिज़ल्ट आ गया बारहवीं का l मैं फिर से थर्ड डिवीज़न में पास था l इस बार सुपर बैड थर्ड डिवीज़न थी l नंबर थे 39 प्रतिशत l इधर नौकरी से मैं भी भर पाया था और पिताजी का गुस्सा भी शांत हो चुका था l हमारा सारा क्रोध तो खैर पसीने के रास्ते शरीर से बह ही गया था l तो, तय हुआ कि अब नौकरी नहीं होगी, आगे पढ़ाई की जायेगी l यह सब तय किसी कमेटी ने नहीं किया l बस रात में सोने से पहले बिस्तर पर लेटे तारे निहारते - निहारते अंतरात्मा ने चुपचाप बोला और हमने चुपचाप सुन लिया l अगली सुबह बस स्तीफे की तैयारी l मैं अपनी तरफ से कुछ कहता सुनता कि मेरे मैनेजर ने मालिक को पहले ही जड़ दिया कि नया लड़का नौकरी छोड़ने के मूड में है l नौकरी छोड़ने की बात पर मालिक ने बस इतना ह
गांव का एक लड़का ( 19 ) लालकुआं के इसी दड़बे में पांच साल रहते हुए मेरे जीवन में सबसे ज्यादा भावनात्मक उतार चढ़ाव आए, शारीरिक बदलाव भी l हारमोंस अपना लेवल तय कर रहे थे l चेहरे पर दाढ़ी - मूछें आ रही थीं और आँखों में सपने बन बिगड़ रहे थे l पढ़ाई में फेल हुए तो लगा अब सब कुछ ख़त्म l उस अँधेरे कमरे में अकेले में खूब रोया भी और लैम्प की रोशनी में अकेले में खूब मुस्कुराया भी l आत्मविश्वास जमीन पर लोट रहा था, हीन भावना घर करने लगी l पर कभी जान देने का ख़याल नहीं आया, न ही दुनिया से भागने का l फिर किसी तरह अपने को खड़ा किया l एक ऐसा दौर भी आया जब लगा कि मैं पूरी दुनिया को जीत सकता हूँ l आत्मविश्वास ऐसा कि लगा, अब कुछ भी नामुमकिन नहीं है l परीक्षा देने के तुरंत बाद किसी रोज पिताजी ने कुएँ की जगत पर नहाते वक्त एलान कर दिया कि मेरी तरफ से तुम अब स्वतंत्र हो l आगे की पढ़ाई ( अगर करना चाहो ) तो अपने बूते पर करो l पुराना जुमला दोहराया कि " बारह साल के बच्चे को वैद्य नहीं ढूँढना पड़ता है " तुम तो अब अठारह के होने वाले हो, हमारा खून पीना बंद करो l हालांकि किसी तरह का कोई विवाद नहीं हुआ था उस
गांव का एक लड़का ( 18 ) लिबर्टी से बाईं तर-फ चल पड़िए तो आगे चलकर दो टाकीज पाए जाते l ' जयहिंद ' और ' जयभारत ' l इन दोनों की ख़ास बात यह थी कि इनमे सिर्फ पुरानी फिल्में ही लगाई जातीं l दाम भी अपेक्षाकृत कम रहते l बताने की आवश्यकता नहीं कि मेरे पसंदीदा छविगृहों में इनका स्थान काफी ऊपर था l अगर आप लिबर्टी से सीधे कैंट रोड पर चलते रहें तो आगे ' ओडियन ' सिनेमा दाईं तरफ था l उससे भी पहले एक नया सिनेमाघर बन गया था जिसका नाम मुझे अब याद नहीं l जाहिर है कि वहाँ के चक्कर कम ही लगे होंगे l आगे बढ़ते हुए बर्लिंगटन चौराहा पार कर उदय गंज में बाईं तरफ मेनरोड से थोड़ा हटकर था ' अलंकार ' l अलंकार में तीन तल्ले का हाल था सबसे नीचे फर्स्ट क्लास, फिर बालकनी और सबसे ऊपर स्पेशल l सबसे नीचे वाले आसमान की तरफ मुंह उठाकर फिल्म देखते, सबसे ऊपर वाले कुँए में झाँक कर, बालकनी वाले अपनी गर्दन को ज्यादा तकलीफ नहीं देते l साहू, मेफेयर, बसंत, नोवेल्टी, तुलसी और प्रतिभा सिनेमाघर हज़रात गंज के अतिविशिष्ट क्षेत्र में आते थे l नई फ़िल्में ज्यादातर यहीं रिलीज़ होतीं l इसी क्षेत्र में
गांव का एक लड़का ( 17 ) सबसे पहली पिक्चर जो परदे पर देखी ( और कहीं देखने की सुविधा तब थी नहीं ) वह थी, ' पैसे की गुड़िया ' l सिनेमा हाल था चौक में ' प्रकाश ' l तब मैं बहुत छोटा था और चाचा के साथ गया था l फिर अगली पिक्चर के लिए मुझे एक दशक का इंतज़ार करना था l मैंने और मेरे सभी भाई बहनों ने कभी भी कोई भी फिल्म अपने माँ - बाप के साथ सिनेमाहाल में नहीं देखी l हम जब ढाई साल के अपने बेटे को पहली बार फिल्म दिखाने नावेल्टी सिनेमाहाल में ले गए तो उसकी आश्चर्य से आँखें फटी रह गईं l ' पापा, इतना बड़ा टीवी? हम पति - पत्नी अपने बच्चे को खुश देखकर बहुत देर तक खुश होते रहे l मेरे माता - पिता ने इस तरह की किसी खुशी में अपना वक्त और पैसा जाया नहीं किया l पिताजी किस्सों कहानियों की दुनिया को समय की बर्बादी समझते थे, और फिल्मों को भी l एक बार पिताजी झांसी में नौकरी के सिलसिले में रह रहे थे l अम्मा भी कुछ दिनों के लिए गई हुईं थीं l यह किस्सा मेरी पैदाईश के पहले का है l अम्मा ने पिताजी से पिक्चर देखने की इच्छा जाहिर की l पिताजी अपने काम में मशगूल थे और उन्हें शौक भी नहीं था l बात टलत
गांव का एक लड़का ( 16 ) लालकुएँ के इसी कुएं में मैं 1982 से 1987 तक रहा l तब शहर में मेरा बस यही ठिकाना था जो मुझे पसंद भी था l वहाँ मैं अपने जैसे लोगों के बीच रहते हुए थोड़ा बेहतर महसूस करता l यहीं पर रहकर जवान होते हुए मैं धीरे - धीरे शहरी जीवन से अभ्यस्त हो रहा था और मुझमे खोया हुआ आत्मविश्वास वापस आ रहा था l मेरे लिए मेरा कमरा बिलकुल मुफीद जगह पर था l कुछ दूरी पर अमीनाबाद, थोड़ी दूर पर हजरतगंज l स्कूल पास में, सिनेमाहाल भी इतनी दूरी पर थे कि रात में आख़िरी शो देख कर पैदल ही घर आ जाते l लालबाग के जयभारत से भी पैदल ही गलियों - गलियों बस कुछ ही मिनटों में कमरे पर l कमरे में बिजली का कनेक्शन नहीं था l लैंप की रोशनी में पढ़ाई होती l गाँव में भी लाईट नहीं थी तो अभ्यस्त था, किसी प्रकार की असुविधा महसूस नहीं होती l गर्मियों में छत पर पानी डाल कर बिस्तर लगाते और देर सुबह तक सोते, जब तक धूप उठा न दे l परेशानी बरसात के दिनों में होती l गाँव में तो बारिश की रातों में सोने का आनंद ही कुछ और था l छप्पर के नीचे खटिया पर चादर तान कर सो जाते l तेज बारिश में पुरवाई के साथ बौछारें आतीं तो दीवार क
गांव का एक लड़का ( 15 )  पुस्तकालय में ढेर सारी पुस्तकें देख कर याद आया कि मेरे प्राईमरी स्कूल के दिनों में एक शर्मा जी दो बड़े - बड़े झोलों में किताबें भरकर हर बृहस्पतिवार को आया करते थे l तभी मैंने रूसी भाषा से अनुदित कई कहानियों की किताबें पढीं थीं l यह एक चलता - फिरता पुस्तकालय था जो हर बृहस्पतिवार को हमारी पास चलकर आता, जिसका मुझे बेसब्री से इंतज़ार रहता l किताबों वाले शर्मा जी को देखकर मैं पुलकित हो जाता l एक बार तो तेज बुखार में भी मुझे स्कूल इसलिए जाना था कि शर्माजी अपने झोलों के साथ आने वाले थे l किस्सों कहानियों के शौक के चलते ही मुझे सिनेमा का चस्का लगा जो बाद में लत बन गई l अपने पढ़ने के शौक को पूरा करने मैं अक्सर किताबों की दूकानों पर पाया जाता l साईकिल को कमर से टिकाये तब तक पत्रिकाएं पढता जब तक दुकानदार घुड़क न दे l साप्ताहिक हिन्दुस्तान और धर्मयुग मेरी प्रिय पत्रिकाएँ थीं, जिनके कई अंक मैंने इसी तरह पढ़े l जाहिर है कि ये और इस तरह की कई पत्रिकाएं हमारे कॉलेज में भी आती रही होंगी जिन्हें हम आराम से बैठकर पढ़ सकते थे l मगर अपने दब्बू स्वभाव और दबे कुचले आत्मविश्वास के का
गांव का एक लड़का ( 14 ) अपने प्राइमरी स्कूल का टॉपर लड़का यहाँ बिलकुल बैक बेंचर हो गया था l न तो पढाई होती थी, न ही कोई कुछ पूछने वाला था स्कूल में, न कुछ समझ आता था l कोर्स की किताबों से अजीब सी घबराहट होने लगी l उसी समय मेरे खानदान में किसी वृद्ध की मृत्यु होने के कारण मैंने सर मुडाया हुआ था l क्लास में देहात से आया हुआ एक घुटमुंडा चिमिर्खी सा लड़का जिसको अंग्रेजी तो छोड़ो खड़ी हिंदी तक बोलने में दिक्कत थी l ऐसे में किसी पढ़ाकू लड़के से मेरी दोस्ती नामुमकिन ही थी l अपने शराफ़त के कीटाणुओं के चलते किसी आवारा लड़के से मैं दोस्ती कर नहीं सकता था l सो, ग्यारहवीं में में मेरा कोई दोस्त बन नहीं पाया l बारहवीं में एक दुबले पतले लड़के सुधीर श्रीवास्तव से मेरी थोड़ी बहुत दोस्ती हुई जिसने बताया कि शुरू में मैं तुमको बिलकुल उजड्ड देहाती ही समझता था l मैंने उससे कहा कि तुम बिलकुल ठीक थे, बस उजड्ड थोड़ा कम हूँ मैं, पर देहाती तुम्हारी सोच से ज्यादा l एक तो पहली बार परिवार से दूर अकेले अनजान शहर में, ऊपर से नया स्कूल, मैं बस डर सा गया था इस दुनिया से l यह डर फिर बहुत वर्षों तक मेरे साथ बना रहा। स्कू
गांव का एक लड़का ( 13 ) 1982 की गर्मियों का उत्तरार्ध रहा होगा जब रिज़ल्ट निकला l पास होने और शहर में रहने की खुशी के चलते रातों की उमस भी अपना प्रभाव छोड़ने में असमर्थ थी l दोपहर में गाँव के हर दुआरे के कई - कई चक्कर लगा कर अपने पास होने का ढिंढोरा पीट आये l दहिला पकड़ खेलते - खेलते जब जी ऊब जाता तो भरी दुपहरिया अमिया चुराकर तोड़ने का प्लान बनता, या ककरहा ताल में तैराकी प्रतियोगिता आयोजित होती l फिलवक्त घर में मार खाने की संभावना काफी कम थी l खेतों से आनाज और भूसा घर आ चुका था l आम और जामुन का मौसम जोरों पर था l लोगों को बारिश का इंतज़ार था पर मेरा मन शहर जाने के लिए हुलस रहा था l सपनों में रोज शहर दिखाई पड़ने लगा l बयालीस प्रतिशत अंकों के साथ हाईस्कूल पास करने के बाद भी मैं विज्ञान के क्षेत्र में ही अपना करियर बनाने के लिए कृतसंकल्प था l आज आपको शायद लग रहा हो कि यह शेखचिल्ली ख़याल हमको उस समय क्यों कर आया? तो बात यह थी कि अपने समकालीन अल्पवयस्कों में केवल मैं ही पूरे गाँव से विज्ञान विषय लेकर हाईस्कूल पास हुआ था l सो, मेरा दिमाग सातवें आसमान पर था l दरअसल उस माहौल में अपने को गर्वित
गांव का एक लड़का ( 12 ) कक्षा आठ पास करने के बाद मेरा मन पढाई से कुछ उचट सा गया l पढ़ाई से, मतलब कोर्स की बोरिंग किताबों से l अगले पांच सालों तक ऐसा नहीं कि मैंने कुछ सीखा नहीं पर इस सीखने में स्कूल और कॉलेज की किताबों और मास्साब लोगों का योगदान न के बराबर ही रहा l अगले दो साल तो गाँव में ही गाय - भैंस चराते, जरूरी बदमाशियां सीखते, करते गुजरे l फिर अगले तीन साल शहर के धक्के खाते, सिनेमाघरों के चक्कर काटते, कुछ नई बदमाशियों को आजमाते हुए काटे l वह सब किया जो उस उम्र के लड़के करते हैं बस एक ही काम नहीं किया, वह थी विधिवत पढ़ाई l जिसका खामियाजा आज तक भुगत रहा हूँ l कभी कभी लगता है कि दिमाग को किसी डब्बे में भगवान् बंद कर के पांच वर्षों तक भूला रहा l फिर अचानक उसे याद आया और मष्तिष्क को कुछ हवा पानी नसीब हुआ l नौवीं और दसवीं क्लास में बायोलॉजी पढ़ाते थे सैयद सरबत हुसैन ( अगर मैं नाम सही लिख पा रहा हूँ ) सर l हुसैन साब खूब लम्बे गोरे चिट्टे आदमी थे, लखनऊ से कभी - कभी आते थे और बायोलॉजी को ब्यांलोजी कहते l जब कभी वह कॉलेज आते तो ठीक - ठाक पढ़ाते भी थे l प्रैक्टिकल भी करवाते l प्याज की झिल
गांव का एक लड़का ( 11 ) मिडिल स्कूल में हमारे घुसने से तुरंत पहले एक गुरुजी प्रधानाचार्य के पद से सेवानिवृत हुए थे l बड़ी तारीफ़ थी उनकी l दुर्भाग्य से मैं उनका विद्यार्थी होने से वंचित रह गया l गाढ़े रंग और ज़रा नाटे कद के गुरूजी बहुत सौम्य और भलेमानुष थे l अपने रंग और स्वभाव के अनुरूप ही मास्साब का पहनावा भी बेहद सरल था l मटमैले रंग की धोती और सफ़ेदी की झलक मारता मुचड़ा हुआ कुर्ता l अपने विद्यार्थियों के साथ अपने पुत्र को भी उन्होंने खूब मेहनत से पढ़ाया l बेटा भी पढ़ाकू निकला और पढ़ते - पढ़ते बड़ा अफसर हो गया l बड़ा अफसर मतलब आई ए एस अफसर l अफसर बनने के बाद पुत्र का गाँव आना जाना भी लगभग बंद हो गया l उस समय गाँव में टेलीफोन की सुविधा नहीं थी l लड़का चाहता तो हो सकती थी, पर लड़के को सरकार ने इतने सरकारी काम सौंप रखे थे कि सांस लेने की फुर्सत नहीं थी l जब बहुत दिनों तक मास्साब को लड़के के हालचाल नहीं मिले तो उन्होंने सोचा काम में व्यस्त होगा चलो हम ही दिल्ली चलते हैं l जनरल डिब्बे में ठुंस कर मास्साब जैसे तैसे दिल्ली पहुंचे l पता लगाते हुए कुछ दूर बस से, कुछ दूर पैदल चलकर आखिर गुरुजी पुत्र के
गांव का एक लड़का ( 10 ) जोड़ घटाना, गुणा, भाग और इमला के बाद अब बारी थी अंग्रेजी की l चार लाइनों वाली कॉपी में शुरुआत हुई l जल्दी - जल्दी ए फॉर एप्पल, बी फॉर बैट पर पहुंचे l कर्सिव राईटिंग का अभ्यास तो कक्षा आठ तक चलता रहा l आगे भी हमेशा अभ्यास ही होता रहा कभी ढंग से लिख नहीं पाए l अब तो यह हालत हो गई है कि दवाओं के नाम छोडकर अपना लिखा पढ़ना असंभव सा हो गया है l अंग्रेजी के गुरुजी वैसे तो अच्छा पढ़ाते थे, मारते भी ठीक ठाक ही थे पर जहां पजावा का पजावा खंजड़ हो वहाँ अव्वल ईंटा भला कैसे तैयार हो l गुरुजी को पूरी क्लास को एक साथ हांकना होता था l मैं भी उसी भीड़ का हिस्सा बना रहा l सो, फिरंगी भाषा हमेशा फिरंगी ही रही l हिन्दी से अंग्रेजी में अनुवाद कभी भी सही नहीं हो पाया पर अंग्रेजी से हिन्दी अनुवाद अनुमान के आधार पर किया करते जो सामान्यतः ठीक होता l वही हालत आज भी है l इतिहास वाले गुरूजी खूब सारा इतिहास बोलकर लिखवाते, जो हमारे कतई पल्ले नहीं पड़ता l बाबर, हुमायूं, अकबर की सीरीज हमेशा उलट - पुलट जाती l आज भी वैसे ही है l पानीपत और प्लासी आपस में ही युद्ध करते रहते l वह बस बोलते जाते और ह
जय कन्हैया लाल की जय हो महँगाई की ठुमक ठुमक चाल की जय कन्हैया लाल की नदी गई सूख शेषनाग मुँह छुपायें किशन गेंद खेलने को घर से न जायें बह रहा पसीना है गर्मी कमाल की जय कन्हैया लाल की आधी रात पैदा हुए कान्हा कुनमुनाएं वासुदेव क्लीनिक का गेट खटखटाएं शाम से ही गायब है नर्स अस्पताल की जय कन्हैया लाल की नाश्ते में मक्खन की बात नहीं करना यूरिया से दूध अब बनाए रामचरना बची नहीं एको अब गईय्या नंदलाल की जय कन्हैया लाल की - प्रदीप शुक्ल ( ' अम्मा रहतीं गांव में ' संकलन से )
5 Little Monkeys Jumping on the Bed - Mother Goose ( अवधी भावानुवाद ) पांच बंदरवा नान्ह केर सब कूदैं बिस्तर पर एकु गिरि गवा खाले, गूमडु निकरा वहिके सर अम्मा कहिनि, डाकटरु आवा बोलिसि आला धर अब कउनो बांदरु ना उलरी द्याखौ बिस्तर पर चारि बंदरवा नान्ह केर सब कूदैं बिस्तर पर एकु गिरि गवा खाले, गूमडु निकरा वहिके सर बप्पा कहिनि, डाकटरु आवा बोलिसि आला धर अब कउनो बांदरु ना उलरी द्याखौ बिस्तर पर तीनि बंदरवा नान्ह केर सब कूदैं बिस्तर पर एकु गिरि गवा खाले, गूमडु निकरा वहिके सर अम्मा कहिनि, डाकटरु आवा बोलिसि आला धर अब कउनो बांदरु ना उलरी द्याखौ बिस्तर पर दुई ठो बांदर नान्ह केर उई कूदैं बिस्तर पर एकु गिरि गवा खाले, गूमडु निकरा वहिके सर बप्पा कहिनि, डाकटरु आवा बोलिसि आला धर अब कउनो बांदरु ना उलरी द्याखौ बिस्तर पर एकु बंदरवा नान्ह केर यहु कूदै बिस्तर पर वहौ गिरि गवा खाले, गूमडु निकरा वहिके सर अम्मा कहिनि, डाकटरु आवा बोलिसि आला धर सारे बांदर पहुड़ि जायं अब सीधे बिस्तर पर - प्रदीप शुक्ल
नन्हे किसान  सूरज आसमान से उतरा  बना रहा खेतों में खाना  और चिरैया लेकर भागी  अभी चोंच में अपने दाना बादल ने पानी बरसाया और हवा ने गाना गाया चिड़िया वापस आकर बोली - जगह ज़रा सी है सुनसान देखो खाली पड़ा मचान पर, डरना मत नन्हे किसान l
हम बच्चे हैं गांव से  हमको कोई रोक न पाए हम बच्चे हैं गांव से हम सूरज को उगता देखें रोज ताल के ऊपर ताज़ी हवा शहर जाती है हमें यहाँ से छूकर कोयल की सुर लहरी भारी है कौए की कांव से गौनहरी चिड़ियों की टोली हमको रोज जगाती सूरज की किरणों से ही गौरैया यहाँ नहाती धूप यहाँ डरकर रहती बूढ़े बरगद की छांव से केवल पुस्तक नहीं यहाँ पर हमको प्रकृति सिखाती नदी हमारे दरवाजे तक हमसे मिलने आती पगडण्डी की घास दोस्ती रखती नंगे पांव से शहरों में लेकर आते हैं हम ही तो भावुकता हम से ही तो बाकी है अब तक थोड़ी मौलिकता हमे हराना मुश्किल होगा बौद्धिकता के दांव से. - प्रदीप शुक्ल
हमरी अंगुरिन मा जवाहिरात रहै  ----------------------------------- हमरी अंगुरिन मा जवाहिरात रहै जब हम सोवै चलेन दिनु बहुतु निमन रहै औ पुरवैया धीरे ते बहि चली हम कहेन, " अब यहु हमरहे पास रही " हम जागेन - हमरी अंगुरिन का मुहुँ बिराय कै रतनु जय चुका रहै आउरु अब, फिरोजी यादन के सिवा हमरे पास कुच्छौ न अहै - एमिली डिकिन्सन ( अवधी अनुवाद - प्रदीप शुक्ल ) I held a Jewel in my fingers - by Emily Dickinson -------------------------- I held a Jewel in my fingers -- And went to sleep -- The day was warm, and winds were prosy -- I said "'Twill keep" -- I woke -- and chid my honest fingers, The Gem was gone -- And now, an Amethyst remembrance Is all I own --