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Showing posts from September, 2019
छिनु छि फ़ेसबुक पर बेचारी कविता ---------------------------- कई कवि लोग बहुत मेहनत करके कविता लिखते हैं। उसका श्रंगार करके उसको आधुनिक और अबूझ बनाते हैं। कविता को डपटते  भी हों शायद - "खबरदार अगर हमारे अलावा किसी के पल्ले पड़ीं। "  :) - अनूप शुक्ल हम तो कविता को फेसबुक पर ऐसे ही छोड़ देते हैं ऐसे मतलब, उचित कपड़े वपड़े पहना कर फिर कोई उसकी चोटी को बताता है अरे! ये तो दोनों चोटियाँ ही बराबर नहीं बनीं इस से अच्छी तो एक ही चोटी थी कोई बिंदी को लेकर चिल्लाने लगता है - देखो इस बच्ची को, कितना छोटा तो मुँह है इसका और बिंदी ... पूरा माथा ही घेरे हुए है कुछ को अच्छी लगती है सीधी सादी कविता तो कुछ मुँह बिचका कर मुँह फेर लेते हैं कुछ तो उसे देख कर पतली गली से निकल लेते हैं - ' अरे यार यह तो उसकी कविता है जो मेरी कविता को देख कर मुस्कुराता है सामने पड़ गई तो मुस्कुराना पड़ेगा ' - प्रदीप शुक्ल # मिनीजुगलबंदी नु लौटि लौटि आ जाय, अउतै देहीं मा लपिट्याय,भलकुछु वहिका आंखी काढ़ा को सखि, सजना? नाहीं, ' जाड़ा '
ओ बसंता !! ओ वसंत के सुन्दर फूल कितना डोप, किन्ना कूल चलो, लौटकर फिर मुस्काना अभी तुम्हे कविता घर जाना छोड़ो स्वैग बांध लो मफलर यहां चल रही हवा किलर - प्रदीप कुमार शुक्ल
सत्याग्रह आश्रम उन्नीस सौ पंद्रह में ( गांधी ) बाबा और ( कस्तूर ) बा ने साउथ अफ्रीका से लौटने के बाद अहमदाबाद में अपना पहला आश्रम खोलने की सोची. सोचा तो बाबा ने ही होगा और बा ने हामी भारी होगी. साबरमती के किनारे जगह तलाश की जाने लगी. साथ ही प्रायोजक भी तलाशे जाने लगे. ११ मई, १९१५ को एक गुजराती सेठ मंगलदास गिरिधरदास को बाबा ने आश्रम के लिए सामान की जो लिस्ट थमाई उसमे पतीलों का साइज़ और चाय के कपों की संख्या भी शामिल थी. जमीन और बिल्डिंग को छोड़कर तकरीबन पचास व्यक्तियों के लिए एक  साल का खर्चा जोड़ा गया रु. छ: हजार. सेठ मंगलदास गिरिधरदास ने हरी झंडी दिखाई और बाबा ने बा के साथ २० जुलाई, १९१५ को साबरमती के दूसरी तरफ जीवनलाल देसाई के खाली पड़े बड़े से बंगले में आश्रम की शुरुआत कर दी. आश्रम के नामकरण के लिए दो सुझावों पर विचार हुआ, ' सेवाश्रम ' और ' तपोवन ' पर नाम धराया गया " सत्याग्रह आश्रम." आश्रम के संविधान में छुआछूत निवारण का विशेष रूप से उल्लेख किया गया और सर्व धर्म समभाव, विशेषकर हिन्दू - मुस्लिम एकता का भी. इसी संविधान को पढ़कर एक सामाजिक कार्यकर्ता ए व
गुरू और चेला १२ जून, १९०५ को पूना में गोपाल कृष्ण गोखले ने ' सर्वन्ट्स ऑफ़ इंडिया ' नामक संस्था बना कर सामाजिक कार्यों की तरफ बाबा का ध्यान खींचा. योग्य और अनुभवी गोखले को बाबा ने अपना गुरू मान लिया. गुरू ने भी अपने शिष्य का बाहें फैला कर स्वागत किया. दो दशकों तक देश से बाहर रह रहे बाबा को अपने गुरू के जरिये भारत की वर्तमान सामाजिक और राजनीतिक परिवेश की झलक मिलती रही. कुछ वक्तिगत मुलाकातों से, पर ज्यादातर पत्रों के द्वारा. दक्षिण अफ्रीका के अपने अनुभव को हिन्दु स्तान में इस्तेमाल करने से पहले वह एक बार फिर गुरू गोखले से मिलना चाहते थे. तो १९१४ में दक्षिण अफ्रीका से सीधा हिन्दुस्तान आने के बजाय उन्होंने लन्दन जाना उचित समझा. गोखले जी फिलहाल लन्दन प्रवास पर थे. गुरू को शिष्य पर अगाध भरोसा था और वह उन्हें अपनी संस्था में लाना चाहते थे. बाबा को लगता था कि सामाजिक मुद्दों को राजनीतिक सीढ़ी की आवश्यकता है. गोखले जी अपनी संस्था को राजनीति की चासनी से दूर रखना चाहते थे. यह प्रसंग पढ़ते हुए मुझे अचानक अन्ना और केजरीवाल याद आने लगे. एक वो थे और एक ये हैं. खैर, गुरू ने शिष्य को
राज कुमार शुक्ला, चंपारण वाले दिसंबर १९१६ में लखनऊ में कांग्रेस का इकत्तीसवाँ अधिवेशन हो रहा था. यह इस मायने में महत्वपूर्ण था कि उसी समय यहीं पर मुस्लिम लीग का अधिवेशन भी रखा गया था. जिसकी कमान जिन्ना के हाथ में थी. कांग्रेस की पगही गरम दल के माने जाने वाले बाल गंगाधर तिलक संभाल रहे थे. यह संयुक्त अधिवेशन इसलिए भी महत्वपूर्ण था कि इसमें कांगेस के नरम - गरम दोनों धड़े शिरकत कर रहे थे. यहीं चारबाग स्टेशन पर अलग - अलग दिशाओं से आकर सत्ताईस वर्षीय जवाहर और सैंतालिस वर्षीय ग ांधी पहली बार आमने - सामने हुए. करीब बीस मिनट की मुलाक़ात में नेहरु को गांधी में राजनीतिक व्यक्तित्व के कोई दर्शन नहीं हुए. वह तो बाद में अधिवेशन के दौरान गांधी ने नेहरू के एक प्रस्ताव का समर्थन कर नेहरू के मन में अपने लिए थोड़ा स्थान बनाया. इसी लखनऊ अधिवेशन में चंपारण, बिहार से इकतालीस वर्षीय निलहा किसान राज कुमार शुक्ला भी अपने कुछ साथियों के साथ आया हुआ था. नील की खेती करने वाले निलहों की भयानक दुर्दशा की तस्वीरें वह कांग्रेस के पदाधिकारियों को दिखाना चाहता था. पर यहाँ तो बड़े लोग बड़ी बातों पर उलझे हुए थे. चंपा
अवधी हमारि - अवधी हमारि ------------------------------ अवधी हमारि - अवधी हमारि, हमका सबते जादा पियारि ई धरती पर आंखी ख्वाला तब हमका तुम कउरियाय लिहेव सोहर गाएव बन्ना सुनाएव जब रोयेन, हमका बेल्ह्माय दिहेव बचपन मा अम्मा का दुलारु तुम अबहूँ तक रक्खेव संभारि अबहूँ बाबा का यादि करी हम मानस की चौपाई ते सपने मा अवधी बोलिति है अबहूँ हम भईंसी गाई ते मौक़ा मिलतै अंगरेजी कै धरि देइति हम केंचुल उतारि अब बहुत दिनन ते सुनेन नहीं तुमरी मीठी मीठी गारी वहु किस्सौ कोउ सुनावै ना जब रमई काका गे ससुरारी बोले कहे रहौ घर मा नाहीं, बचुआ देहैं बिसारि - प्रदीप शुक्ल # मातृभाषा_दिवस
टिरंप दउआ राम - राम जउन है तउन तुमका तौ हम बतावा रहै अपने पड़ोसी क्यार हालु. हमरे सहन मा कब्जा कीन्हे है सार. कुछु कहौ तौ गुर्राति है. तुम्हारिही सह पाए रहै अबे तक . अब तुमहू जानि गयेव. अच्छा मजे केरि बात यह है कि जउन हमरे सहन मा वहु कब्जा कीन्हे है वहिका इतना गन्ध्वाए है कि बसि पूछौ ना. सांप सार बाम्बिन मा घुसे हैं. औ अइसी निकरि - निकरि काटति हैं. उनहुन का काटति हैं मगर पट्ठा कटवा रहा, सुनतै नहीं. हम कईउ बार कहा कि हमार पटीदार आहिउ तुम, गरीब हौ हम जानिति है. तुमरे बस का नहीं है. हमार हिस्सा हमका देव अउर मउज ते रहव. लेकिन हरामी है सार ( अउरिव गारी देवईया हन, हियाँ लिखि नहीं पा रहेन, बस समझि लेव ) भला पूंछो जब तुमका खाए कै लाले परे हैं तो हटौ हुअन ते, मुलु मानि नहीं रहा. हम भल कुछु कहा, लालु तुम न साफ़ कै पाव तौ हमही खरहचा लगा दीन करी. मुला वहु तइयार न भवा. तौ दउआ आजु भोरैखे हम हुआ जाय कै बाम्बी - वाम्बी साफ़ कीन है. तुमरे पास तो र्वावै आवा होई, तुमका का बताई. दउआ तुमका यह पाती हम यहिके बरे लिखि रहेन है कि वहि चोट्टा का समझा लीन्हेव नहीं तो वहिके आधे घर तक कब्जा कई ल्याब अबक
खित्ते से दहशतगर्दी ख़त्म होनी चाहिए -------------------------------------------- इमरान भाई तुम्हारी जो इच्छा थी कि इस पूरे खित्ते से दहशतगर्दी ख़त्म हो, वही तो हम कर रहे हैं. जैश वाले चच्चू को तुम्हारे मालिकान लोगों ने घर जमाई बना कर रखा है. हम जानते हैं कि तुम भले आदमी हो. लेकिन तुम्हारे बस का कुछ है नहीं. तो हमने सोचा कि तुम्हारे खित्ते के दहशतगर्दों को हूरों के पास पहुंचा दें. वे भी बेचारे कब तक दाढ़ी लहराते हुए पटाखों से खेलते रहेंगे. मियाँ, तुम तो खूब पढ़े लिखे आदमी हो. खूब देश विदेश घूमे हो. हमारे देश में भी कितने चाहने वाले थे तुम्हारे ( अब नफरत करने वाले ज्यादा हैं ) लेकिन बात वही कि तुम्हारे बस का है नहीं कुछ इमरान भाई. तुम्हारे मामू जनरल नियाज़ी भी बेचारे भले आदमी थे. पाकिस्तानी अवाम से मुहब्बत करते थे और एक लाख सैनिकों को बचा ले गए. तुम्हारे पास बड़ा मौक़ा है. तुम लाखों को बचा सकते हो. तुम अपनी अवाम को दिखाने के लिए हमारे बागीचे के ऊपर से अपने कौए भी उड़ा लाये. कौए भगाते हुए एक हमारा बच्चा तुम्हारे आँगन की तरफ चला गया. उसे तुमने पकड़ लिया है और बड़े तीरंदाज बनने की कोशिश कर
होरी है .... होरी है --------------------- अबकी सबक सिखाना पाक का अबकी सबक सिखाना ... मना करेव पर मानै ना सांपन का दूधु पियावै पकरि - पकरि हमरी तन छ्वाडै जब तब यहु कटवावै कुचरि देव यहिका फनु पहिले यहु सांपन का नाना पाक का अबकी सबक सिखाना ... पाक का अबकी सबक सिखाना अबकी सबक सिखाना पाक का ........ भूखन मरै मगर आतंकिन का बैठारे काँधे जबते पैदा भा है तबते हमते दुसमनि बाँधे लेहे कटोरा माँगि रहा है दुनिया भर ते खाना पाक का अबकी सबक सिखाना ..... पाक का अबकी सबक सिखाना अबकी सबक सिखाना पाक का ........ बातन ते अब बात बनी ना हमका समझि म आवा बात ख़तम अब गोली भरिकै हम बन्दूक उठावा फिरि छेड़ी फिरि घुसि कै मारब यहु मन मा है ठाना पाक का अबकी सबक सिखाना .... पाक का अबकी सबक सिखाना अबकी सबक सिखाना पाक का ........ - प्रदीप कुमार शुक्ल
विपक्ष बिलबिला रहा है कि पाकिस्तान के विरुद्ध सैनिक कार्यवाही और उसके उपरांत हो रहे घटनाक्रम से सतापक्ष को लाभ हो रहा है. अब हमारा क्या होगा? उनका बिलबिलाना जायज है. हर छोटी से छोटी डेवलपमेंट का सारा श्रेय स्वयं प्रधानमन्त्री तत्काल रूप से उठा लेना चाहते हैं. ठीक है आपने आतंकवाद के विरुद्ध जिस तरह की राजनीतिक इच्छाशक्ति और प्रतिबद्धता दिखाई वह पूर्ववर्ती सरकारें नहीं दिखा पाईं. पर उसके लिए तुरंत अपनी पीठ थपथपाना बहुत हल्केपन की निशानी है. आप हर चौराहे - नुक्कड़ पर छप्पन  इंची सीना लिए होर्डिंग में मुस्कुरा रहे हैं और वहाँ कश्मीर से रोज ताबूत देश के कोने - कोने पहुंचाए जा रहे हैं. अरे, कुछ तो शर्म कीजिए. जो युद्ध आपने शुरू किया है उस पर ध्यान दीजिये. आपका ध्यान तो बूथ पर है. हमारे सैनिक आपकी चुनावी जीत के लिए बलिदान नहीं दे रहे. # युद्ध_और_चुनाव
पाकिस्तान के मंत्री फ़वाद चौधरी साहब ने पूरी दुनिया को यह स्पष्ट किया है कि पाकिस्तानी संसद में उनके प्रस्ताव को मीडिया ने गलत तरीके से पेश किया है. मवाद .... माफ़ कीजिएगा फ़वाद ने फरमाया है कि खां साहेब को पिछले तीन दिनों से जुलाब लगे हुए थे. तीन मिनट की रिकार्डिंग के लिए उन्हें अठारह बार टॉयलेट जाना पडा. आप सब ने देखा ही है कि रिकार्डिंग कितनी बार रोकनी पड़ी. ऐसे माहौल में उनका पस्त होना लाजिमी था. दरअसल हम उनके लिए पीस प्राइज़ नहीं 'लेग पीस - राईस' की मांग कर रहे थे.  जो हमने किसी तरह अब अरेंज कर लिया है. हालांकि मोदी साब को हमारा देश इस छोटी सी बात के लिए शुक्रिया नहीं कहेगा. हाँ, जुलाब ठीक करने के लिए मेरा पूरा मुल्क और खां साहेब उनको तहे दिल से शुक्रिया अदा करते हैं. बस इतना ही. # इमरान_फॉर_लेगपीस
जितनी लाशें उतनी सीट गिन लो बाबू ध्यान से विपक्ष आतंकवादियों की लाशें कम करते - करते शून्य पर पहुँचाना चाहता है. गोया लाशें न हो गयीं सत्ता पक्ष की लोकसभा सीटें हो गयीं. सत्ता पक्ष लाशें किसी भी कीमत पर अढ़ाई सौ से कम करने को राजी नहीं. भाई साब आप लोग तो कुछ बिकास - उकास के बारे में बात कर रहे थे. # चुनाव_गदह्चरि
महिला दिवस मा रामकली --------------------------- चारि बजे हैं खटिया पर ते बस उतरी हैं रामकली हैण्डपम्प ते पानी भरिकै लाई हैं दुई ज्वार लकड़ी कै कट्ठा पर जूठे बासन ते है वार बिन अवाज पूरे आँगन मा फिरि दउरी हैं रामकली पौ फूटै तो लोटिया लईकै बहिरे बाहर जायँ लउटैं तो लोटिया फ्याकैं औ' ग्वाबरु लेयँ उठाय रपटि परी हैं डेलिया लईकै फिरि सँभरी हैं रामकली दूधु दुहिनि बर्तन मा डारिनि अब यहु जाइ बजार बचा खुचा लरिकन के खातिर रखिहैं पानी डार महिला दिवस मा हँसिया लईकै निकरि परी हैं रामकली. - प्रदीप शुक्ल महिला दिवस ' 2016
सरलादेवी चौधरानी सन अट्ठारह सौ नब्बे में सभ्य समाज की महिलायें जब सात पर्दों के पीछे छुपी रहती थीं तब सरला देवी ने सत्रह वर्ष की आयु में कलकत्ता विश्वविद्यालय से अंग्रेजी साहित्य से बी ए की डिग्री प्राप्त की. अंग्रेजी साहित्य में प्रतिष्ठित पद्मावती गोल्ड मेडलिस्ट सरला देवी उन दिनों उँगलियों पर गिने जाने वाली कुछ एक महिलाओं में शामिल थीं, जो ग्रेजुएट थीं. शेली, कीट्स पर अपने मामा रबीन्द्रनाथ टैगोर से बहस करती सरला देवी ने फिज़िक्स पढ़ने के लिए विश्वविद्यालय में अपना नाम  लिखाया. फिजिक्स पढने वाली वह क्लास में ही नहीं पूरे भारत में अकेली महिला थीं. बाद के दिनों में उन्होंने संगीत और कला में भी हाथ आजमाया. वन्देमातरम को पहली बार उन्होंने ही संगीतबद्ध किया. अत्यंत ख़ूबसूरत और अटूट स्वाभिमान की मालकिन सरला देवी के आगे लाखों पुरुष बौने नज़र आते थे. जाहिर है कि शादी कर घर बसाने वाली जीव नहीं थीं वह. तैंतीस बरस की उमर में जब उनकी माँ मृत्यु शैया पर थीं तो उनकी आखिरी इच्छा के क्रम में सरलादेवी का ब्याह लाहौर हाईकोर्ट में नामी वकील रामभुज दत्त चौधरी से हुआ. सरला देवी चौधरानी के पति ने भी
हाड़ - मांस का पुतला सरलादेवी चौधरानी को गांधी जी पसंद करते थे. या बात शायद पसंद से आगे की थी. यहाँ मामला दोतरफा था. इसके पहले साउथ अफ्रीका में भी उनके एक सहयोगी की बहन उनसे प्यार करती थी पर वहाँ मामला बिलकुल एकतरफा था. वहाँ खुला समाज था और ये बातें वहाँ पर उस जमाने में भी सामान्य आचरण में आती थीं. सबसे बड़ी बात गांधी वहाँ पर मिस्टर मोहनदास थे पर यहाँ भारत में वह महात्मा बन चुके थे. गांधी जी के प्रभाव में बंगाल की भद्रमहिला, जिसका पंजाब क्या पूरे उत्तर और पूर्व भारत में  जलवा था, ने मोटी खादी धोती और ब्लाउज पहनना शुरू कर दिया था. एक बार गांधी जी पूना में थे और सरलादेवी अपने सौतेले पुत्र का ब्याह कराने पंद्रह दिन के लिए लाहौर गईं थीं. गांधीजी रोज उन्हें पत्र लिखते. दूसरे दिन ही उन्होंने लिखा, " कल रात मुझे दो सपने आये. पहला खिलाफत का, दूसरा तुम्हारा. मुझे लगा तुम दो दिन में ही वापस आ गई हो और कह रही हो कि पंडितजी ( सरलादेवी के पति ) ने दिल्लगी की थी. कोई शादी - वादी नहीं थी. पर मेरा दिल टूट गया जब मैंने महसूस किया कि यह सपना था." ..... " कल भी तुम्हारे पत्र का मैं
जनता के सेवक ग़रीब, दुखियारी जनता की सेवा का मौक़ा पाने के लिए सेवकों की नई खेप मार्केट में है. ये सेवक अगले दो महीने आकाश - पाताल एक कर देंगे. पुराने सेवकों के मुंह में सेवाभाव का खून लगा है और नए सेवक यह खून अपने मुंह पर लगवाने के लिए बेकल हैं. ये सेवाआतुर सेवक अन्य सेवाकांक्षियों को गालियाँ देंगे, मल्लयुद्ध लड़ेंगे, दूसरे गुट के सेवकों की धोती खोलेंगे और जरूरत पड़ी तो अपना भी लंगोट उतार फेकेंगे. कुल मिलाकर जनता का मनोरंजन भी करेंगे. सेवक केवल खुराकी पर सेवा करेंगे. यह अलग बात है कि इन क्षुधातुर पिस्सुओं की क्षुधा शांत कर पाना गरीब जनता के बस में नहीं है. # चुनाव_गदहचरि_२
उनका इंतज़ार उई अइहैं दारू मुर्गा सब छनवइहैं निरखि रहा है सारा गांव का सखि साजन? नहीं, ' चुनाव ' - प्रदीप कुमार शुक्ल इनको बुद्धू लोग बनायें जान बूझ ये बनते जायें जैसे उल्लू बैठा कोटर क्या सखि साजन? ना री, ' वोटर ' - प्रदीप कुमार शुक्ल अब दो महिने इनको झेलो इनके साथ कुकुरझौं खेलो अभी चढ़े हैं इनके भाव क्या सखि साजन? नहीं, ' चुनाव ' - प्रदीप कुमार शुक्ल 13 मार्च, 2019
( अनुभूति के होली विशेषांक में प्रकाशित ) होली रंग टेसू के बिलखते है यहाँ पर खेलने जब से लगे तुम खून की होली नीम तीता हो गया मीठा कुआँ घाटियों से उठ रहा काला धुआँ हम तुम्हे बच्चा समझ पुचकारते हैं तुम खिलौनों में भरो बारूद की गोली उस पड़ोसी चचा के घर में घुसे हो बच नहीं सकते जहन्नुम में फँसे हो लाल गहरे रंग से रँगने तुम्हे आ रही है वहाँ पर यमराज की टोली दे चुके मौक़ा न अब देंगे तुम्हे होलिका में झोंक हम देंगे तुम्हे भस्म कर देंगे वहीं पर आग में सब खिलौने और तेरे चचा की खोली - प्रदीप कुमार शुक्ल
रास्ता आसान था चलता हुआ पंखा रुक गया था रस्सी नीचे तक लटक आई थी और स्टूल ठीक उसके नीचे था कहीं कोई संसय नहीं था जब मैं बिलकुल आसान रास्ते पर चलने के लिए तैयार था झूलती हुई रस्सी मैं गले में डाल चुका था पैसों के मोह से बहुत दूर निकल चुका था पैरों से स्टूल सरकाता कि उससे पहले मेरी निगाह मेरे बचपन की एक फोटो पर जम गई तब मुझे अहसास हुआ कि अब दिन का उजाला मैं कभी नहीं देख पाऊंगा फोटो मेरे हाथ में थी और मैं सोच रहा था इस बच्चे के पास कोई योजना नहीं थी कोई मांग नहीं थी अपना पक्ष चुनने में उसे कोई हिचकिचाहट नहीं थी उसकी आँखों में थी एक विशेष चमक उसकी छोटी आँखों में थीं बड़ी उम्मीदें वह नहीं था किसी लकीर का फकीर उसके पास थी ताकत किसी भी झंझावात को पार करने की आज मैंने उस बच्चे को अपमानित किया इस निराश करती दुनिया के आगे समर्पण कर लेकिन अभी बहुत देर नहीं हुई थी और मैं किसी शूरवीर से कम नहीं था बस उठा कर तलवार मैं चाह रहा था निकलना उस सड़क पर जहां मैं अपने सपनों को खोजते हुए पहुँच सकूं अपनी मनचाही जगह रास्ता आसान था - प्रद्युम्न शुक्ला The Easy Way Out The fan was stopped
होली में आओ चलें अपने - अपने गांव इंतज़ार में है वहाँ घनी नीम की छांव घनी नीम की छांव, अभी तुम पा जाओगे गूगल में ही देख बाद में पछताओगे बौराया है आम लिए ख़ुशबू की झोली कहती ढोलक थाप आइये खेलें होली - प्रदीप कुमार शुक्ल
मन खुश था जब वह थे आये दिल में अपने आप समाये पर निकले ढोंगी के बाप क्या सखि साजन? ना सखि, ' आप ' बन में, मन में खिले पलाश मौके की हो रही तलाश आते ही होगी बरजोरी क्या सखि साजन? ना सखि ' होरी ' होली में वह होश भुला दे अंग - अंग गुदगुदी मचा दे हौले - हौले उठे तरंग क्या सखि साजन? ना सखि ' भंग ' पांच साल मा अब दिन बहुरे चले आ रहे निहुरे - निहुरे ताकति दीदा होइगे लाल को सखि साजन? न, ' लोकपाल '
फागुन - फागुन ढोल मँजीरा झाँझरी, .. ढपली और मृदंग धूल झाड़ कर आ गए, सब फागुन के संग पीली चूनर ओढ़ कर, सरसों खड़ी सिवान नटखट फागुन दूर से, ..कर लेता पहचान आहट फागुन की सुनी, बौराया है आम पत्ते पत्ते हँस पड़े, .... फैली खबर तमाम गागर रंगों से भरी, .. जिसने दिया उछाल उस फागुन के हाथ में, महका हुआ गुलाल महका महका तन लिए, मनुआ फिरे अधीर फागुन फागुन हो रही, .... पुरवा की तासीर. # डॉ. प्रदीप शुक्ल 11.03.2016
सूरज जी तितली से पीला रँग लेकर आसमान से नीला लेकर लाल, बैंगनी, हरा रंग फूलों से लेकर आये सुबह सबेरे सूरज जी ने सब पर रँग बरसाये पिचकारी से रंग न निकले सूरज जी पानी पर फिसले आसमान, तितली, फूलों ने अपने रंग उड़ाए होली में सब रंग खेलते सूरज जी गुस्साये - प्रदीप कुमार शुक्ल
टीवी, कंप्यूटर नहीं, सीधे पकड़ो नोट नेता जी चिल्ला रहे, तुम बस देना वोट तुम बस देना वोट, और हम सब कर लेंगे मिलकर सारा देश, खूब खटिया तोड़ेंगे अलग करो परिवार, कह रही है अब बीवी ले कर आओ आज, बड़ा एलसीडी टीवी # चुनाव_२०१९
गांधी जी लगभग अठ्ठारह किलोमीटर प्रतिदिन पैदल चलते थे. 1913 से 1948 तक गांधी जी लगभग 79000 किलोमीटर चल चुके थे. अगर वह सीधी रेखा पर चलते तो दो बार पृथ्वी का चक्कर मार लेते. 1939 में गांधी जी का वजन छियालीस किलो सात सौ ग्राम और कद पांच फीट पांच इंच था. अमित भाई शाह  # Amit_Shah_BJP  जी जहां कहीं हों इसे पढ़ें. # चुनाव_के_बगल_से
घोषणा पत्र का एक टुकड़ा ------------------------------ हम राष्ट्रभक्त हैं बात करेंगे तोपों की तलवारों की वह रोटी की बातें करते हम बात करें हथियारों की हम भूखे नंगे रह लेंगे पर बढ़िया तोप खरीदेंगे बज चुकी यहाँ अब रणभेरी है जगह नहीं बीमारों की घर में घुस कर हम ने मारा अब अंतरिक्ष में मारेंगे भारत माता की जय बोलो अब खैर नहीं गद्दारों की हम कसम राम की खाते हैं फिर मंदिर वहीं बनायेंगे हम ताजी आवाजें लायेंगे फिर से बासी नारों की कुछ ज्यादा रुपयों की खातिर हम देश नहीं मिटने देंगे भूखे रहकर भी युद्ध लड़ेगी सेना चौकीदारों की # चुनाव_गदहचरि
मतदाता हैरान है, किसको दे वह वोट जिसको जब मौक़ा मिला, उसने मारी चोट उसने मारी चोट, जिसे हम समझे अपना सब पीते हैं खून, सामने माला जपना कहते चौकीदार, चोर से उनका नाता कुछ तो खुद ही चोर, कहाँ जाए मतदाता # चुनाव_गदहचरि
ज़रा बचना ----------- ज़रा बचना ये विषधर सांप सड़कों पर निकल आये पहन कर खाल मानव की शहद लिपटी ज़बानों से निकल कर आ रहे होंगे गली के हर मुहानों से जहर उगलेंगे, थोड़ा सा ये बस मौसम गुजर जाये ये चीखेंगे लगा टोपी जवानों की, शहीदों की जलाएंगे चितायें फिर यही उनकी उमीदों की अभी हैं आँख में आंसू ज़रा बस बात बन जाये कोई पैसे की थैली दिखा महलों में बुला लेगा तुम्हारी पीढ़ियों को भी भिखारी वह बना देगा अभी मासूमियत सांपो की आँखों में लहर जाये - प्रदीप कुमार शुक्ल
चैत पर सवार है चुनाव ------------------------- भकुआया - भकुआया घूम रहा गांव चैत पर सवार है चुनाव दिखता है आमों से ज्यादा बौराया मतुआया दौड़ रहा दुपहर दोपाया बिजली के खम्बे में खोज रहा छांव चैत पर सवार है चुनाव आंधी है? आंधी है? टेर रहे सारे कुछ पत्ते पीले हो काँपें बेचारे बाक़ी सब मगन सुनें कौओं की कांव चैत पर सवार है चुनाव चैती आलाप रहे शहर के गवैया मंजरियाँ चूस रहीं शाह की ततैया राजकुंअर चलें वहाँ रोज नए दांव चैत पर सवार है चुनाव भकुआया - भकुआया घूम रहा गांव चैत पर सवार है चुनाव - प्रदीप कुमार शुक्ल
अभी तो छुट्टी पर हैं राम इस चुनाव में जाने कैसे मिला उन्हें आराम अभी तो छुट्टी पर हैं राम गली - गली हर नगर - गांव में घूम रहे लंगूर कभी संतरा है गिलास में कभी पियें अंगूर लंका नहीं अयोध्या का ही करते काम तमाम अभी तो छुट्टी पर हैं राम गायब चरणपादुका बिलकुल खाली सिंघासन कब्जा करने को आतुर सब चोर करें आसन अवधपुरी में रामराज्य की घिर आई है शाम अभी तो छुट्टी पर हैं राम भुनगे भर लग रहे आजकल उनको नर नाहर पुष्पक भी अब उनकी जद से कहीं नहीं बाहर महाबली जी रामचंद्र का भूल चुके हैं नाम अभी तो छुट्टी पर हैं राम - प्रदीप कुमार शुक्ल ( अनुभूति के ' रामनवमी विशेषांक ' में प्रकाशित )
सिंहावलोकन --------------- सुनो बंधु इन दिनों देश बस भौंचक हुआ खड़ा है राष्ट्रवाद का कसे लंगोटा है विकास दंगल में महाबली के चेले चापड़ कूदें अगल - बगल में लोग बतायें शोर बहुत पर मेला कुछ उखड़ा है वादों की गठरी काँधे पर मंत्री लिए खड़े हैं हाँफ रहे दरबानों की राजा जी पीठ चढ़े हैं रत्न जड़ित सिंहासन बिलकुल खाली हुआ पड़ा है कंकड़ लिए चोंच में कौए डोल रहे हैं भूखे उनके हिस्से वाले सारे ताल पोखरे सूखे बढ़ती जाए प्यास पास में टूटा हुआ घड़ा है - प्रदीप कुमार शुक्ल
सुनो राम जी! कब आओगे? ---------------- यहाँ जटायू फ़िर चिल्लाया सुनो राम जी! कब आओगे? युग बदला है लोग धरा पर हैं बदले बदले घर - घर में अब सुग्रीवों को बाली रोज़ छले जज है बाली का हमसाया सुनो राम जी! कब आओगे? जिसको मैं सोचूँ रघुनन्दन, रावण वह निकले सबरी के बेरों को अपने पैरों से कुचले सरयू पर केवट घबराया सुनो राम जी! कब आओगे? रोज दशानन पैदा होते रघुवंशी घर में चुपके से वे अब विराजते बहुतों के उर में रामराज्य पर काला साया सुनो राम जी! कब आओगे? - प्रदीप शुक्ल ( " गांव देखता टुकुर - टुकुर " संग्रह से )
मजा आयेगा, तुम भी पढ़ कर तो देखो ------------------------------------------- चलो आओ कर लो किताबों से यारी बदल जायेगी फिर ये दुनिया तुम्हारी किताबों के भीतर है काफी मसाला किताबों से भरता है मन में उजाला दुनिया के कोनों में ले कर ये जाएँ वहाँ के अनोखे ये किस्से सुनाएँ तुम्हे भी मिलेगी अगर खोज पाओ किताबों में रहती है सब जानकारी किताबें पढोगे तो खुश होंगे पापा चहक कर के सबको बतायेंगी आपा कि भैया हमारा बहुत है पढ़ाकू नहीं है वो अब तो तनिक भी लड़ाकू जो कहते हैं बुद्धू अभी दोस्त तुमको तुम्ही में दिखेगी उन्हें होशियारी जरूरी हैं सब पाठ्यक्रम की किताबें मगर और भी हैं जरूरी किताबें मजा आयेगा, तुम भी पढ़ कर तो देखो उनकी तरफ थोड़ा बढ़ कर तो देखो करो मित्रता तुम किताबों से प्यारे निभाएँगी वे दोस्ती उम्र सारी. - प्रदीप कुमार शुक्ल
पहले एक पागल आदमी ने पचास बेकसूर लोगों को मस्जिदों में गोलियों से भून दिया। उसके जवाब में कुछ और पागलों ने चार सौ लोगों को चर्चों में बम से उड़ा दिया। दुनिया के चौधरियों, मिलकर इस पागलपन का इलाज करो। आखिर कुछ तो इलाज खोजना ही पड़ेगा। सोचो, इससे पहले कि तुम सब भी पगला जाओ। अगर अब विश्वयुद्ध हुआ तो पागल होने के लिए भी कोई जिंदा नहीं बचेगा।
नई पुस्तक की भूमिका पढ़िए, जो आदरणीय दिविक रमेश जी ने लिखी है. किताब भी पढ़ सकते हैं, हमें अच्छा लगेगा. ------------------------------------------------------------------------------------- जुगलबंदी : बाल-साहित्य में एक ‘हर्षित’ प्रयोग --------------------------------------------------- -- दिविक रमेश बाल-साहित्य में, कम समय में ही, अपनी पहचान बना लेने वाल कवि डॉ. प्रदीप शुक्ल और सुपरिचित बाल-कथाकार डॉ. मंजरी शुक्ला की साहित्यिक जुगलबंदी की एक पांडुलिपि मेरे सामने है। इस पर कुछ लिखने के आग्रह के साथ इसे भेजने से पहले मुझसे पूछ लिया गया था। जुगलबंदी नाम सुनकर ही मैं इसे पढ़ने के लिए उत्सुक हो उठा था। यूं कला और साहित्य के क्षेत्र में जुगलबंदियों का मैं थोड़ा-बहुत जानकार और अनुभवी रहा हूं। साहित्य और चित्र,चित्र और साहित्य, साहित्य और संगीत इत्यादि की जुगलबंदी हिंदी साहित्य में भी उपलब्ध है।लेकिन प्रस्तुत जुगलबंदी साहित्य की दो विधाओं की बीच की है। बाल कहानी और बाल कविता के बीच की। पांडुलिपि सामाप्त करते –करते मन में प्रश्न उठा कि कहानियां कविताओं से प्रेरित(प्रभावित नहीं) हो कर लिखी
तितली बोली एक अदद तितली के पीछे मुन्ना भागा जोर से तितली उड़ी, ज़रा घबराई यूं मुन्ने के शोर से मुन्ना बोला - तितली रानी, कहाँ छुपी तुम रहती? तितली के संग खेलें बच्चे मेरी नानी कहती हर सन्डे को राह तुम्हारी देखा करता भोर से तितली बोली - बड़ा कठिन, पत्थर का तेरा घर है आस पास उसके फूलों का मिलना भी दूभर है गमले में जो पौधे, हमको लगते बहुत कठोर से मैं तो गलती से आ पहुँची फूल दिखे थे मुझको प्लास्टिक फूल सजा कर रखता शर्म न आई तुझको तुझसे कुट्टी, कभी न गुजरूँ तेरे घर की ओर से. - प्रदीप कुमार शुक्ल ( बाल वाटिका, मई २०१९ के अंक में प्रकाशित )
उनके आने का था शोर लगता था अब होगी भोर लेकिन गहराई है शंका क्या सखि, साजन? नहीं, ' प्रियंका ' मना कीन हम फिरिउ न मानिन कानु पकरि फिरि माफी मांगिन नंगे पायं चलि रहे भुल - भुल को सखि, साजन? नाहीं, ' राहुल ' कबौं तो बप्पा ते लड़ि जाय कबौं तो खेती देय बँटाय वहिका बंहकाये हैं बुआ को सखि, साजन? नाहीं ' बबुआ ' जहिका द्याखौ वहु गरियावै ऊपर मलिकौ आंखि देखावै वहिके खातिर मांगी दुआ को सखि साजन? नाहिं, ' केचुआ ' ( केचुआ - केन्द्रीय चुनाव आयोग ) कहौ उड़ीसा या बंगाल आया बन जी का जंजाल बाबू, दीदी मांगें पानी क्या सखि मोदी? ना सखि ' फ़ानी '
अच्छे दिन कै जिकिर न कीन्हेव बाक़ी कउनिव फिकिर न कीन्हेव ओट दिहेव, अब रस्ता नापौ जादा टइयाँ टिकिर न कीन्हेव
आम खाने हैं तो बबूल के बीज मत बोइये -------------------------------------------- आम का सीज़न शुरू होने वाला है पर हम यहाँ कोई आम बात नहीं कर रहे. बात बहुत ख़ास है, आसिया नौरीन यानी आसिया बीबी के बारे में. वही आसिया बीबी जिसे पाकिस्तान के एक सेशन कोर्ट ने ईश निंदा क़ानून में फांसी की सजा सुनाई थी. यूं तो सुप्रीम कोर्ट ने उसे आठ साल बाद बरी कर दिया था पर ईश के बहुत प्यारे बन्दों ने पाकिस्तान में तीन दिनों तक पूरे पाकिस्तान पर काफी प्यार बरसाया. उनकी मांग थी कि आसिया बीबी की आत्मा को तुरंत मुक्त किया जाए. सरकार के पुनः अपील के वादे पर बमुश्किल वे बन्दे माने. भला हो सुप्रीम कोर्ट का जिसने आसिया बीबी को अभी इस गोले पर विचरण करने के लिए कुछ और समय दिया. हाँ, तो ख़ास बात यह हुई कि चुप्पे - चुप्पे आसिया बीबी पकिस्तान से रुखसत हो कर कनाडा पहुँच गयीं. आठ साल जेल और गर्दन पर रखी तलवार से उन्हें मुक्ति मिली. आज के अखबारों में यह खबर है कि आसिया बीबी अब कनाडा में अपने परिवार के साथ पहुंचा दी गयीं. उनका परिवार भी गुपचुप तरीके से पिछले बरस कनाडा पहुँच पाने में सफल रहा था. अब इससे ज्यादा और ख़ास क्या
चाय पर चर्चा चाय का नशा अफीम के बराबर तो नहीं ही होता है, पर साहब बहुत कम भी नहीं होता. चाय और अफीम दोनों के नशे को मैंने बहुत करीब से देखा है. मेरे बाबा अफीम का नशा करते थे. उसे वह दवाई कहते थे और हम भी दवाई ही समझते थे. उस पर चर्चा फिर कभी. चाय के नशेड़ी तो हम खुद ही हैं. पर इन सबसे ज्यादा बड़ा नशा होता है पैसे बनाने का और शोहरत कमाने का. अब नशा तो नशा है, बस लग भर जाए. चाय का नशा अंग्रेजों को कैसे लगा यह तो प्रवीण झा जी बताएँगे, पर चीनियों को अफीम की लत लगवाने में चा य की महत्वपूर्ण भूमिका रही है यह हम सब जानते हैं. हुआ यूं कि फिरंगियों को चाय की लत इस कदर लगी कि उनका बहुत सारा पैसा चाय की पत्ती के एवज़ में चीन में इकट्ठा होने लगा. उसके अनुपात में चीन फिरंगियों से ज्यादा कुछ नहीं ख़रीदता. अब व्यापार घाटा दनादन बढ़ने लगा. तो उसकी काट के लिए गोरे लोगों ने अफ़ीम नामक अस्त्र खोज लिया. यह उनके लिए बहुत फायदे का व्यापार साबित हुआ. वे अफीम की खेती मालवा में करवाते और बाम्बे से उसे चीन भेज देते. वहाँ चीनी अफीम पी कर मस्त रहने लगे. अफीम की पिनक में चीनी इतना मस्त हो गए कि एक छोटे से देश ज
!! माँ !! हरदम मेरा साथ निभाना माँ मेरी तू कभी न जाना !! जो तूने सपने बोये थे वो अब कितने बड़े हो गए कल गोदी में खेल रहे थे आज सामने खड़े हो गए मेरे सपनों के पीछे भी तेरे ही सपने हैं सारे मेरी आँखों के सपनों को तुम अपनी पलकों पे सुलाना माँ मेरी तू कभी न जाना !! हरदम मेरा साथ निभाना माँ मेरी तू कभी न जाना !! जब बचपन को याद करू मैं बस तू ही तू याद आती है चेहरों को ढूँढने चलूँ तो तेरी सूरत बन जाती है अब मैं जो भी याद करूं वो सारे तेरे अफ़साने हैं बाकी सब आवाजें मद्धिम याद रहे बस तेरा गाना माँ मेरी तू कभी न जाना !! हरदम मेरा साथ निभाना माँ मेरी तू कभी न जाना !! यादों में गर पीछे जाऊं बस तेरी ममता ही पाऊँ हाथ थाम लेती थी हरदम सपने में भी जब घबराऊँ मैं रोया जब , तू भी रोई हर छोटी बातों से विचलित बस मेरे हँसने की खातिर तूने भी सीखा मुस्काना माँ मेरी तू कभी न जाना !! हरदम मेरा साथ निभाना माँ मेरी तू कभी न जाना !! हम चुपके से बड़े हो गए माँ को धीरे धीरे भूले पर माँ की बस यही कामना मेरा बेटा तारे छू ले उसकी बातों में , किस्सों में केवल हम और हम ही हम हैं हम अपनी व्यस्तता को रोयें