सकठ
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सबसे पहले ख़त्म होती थीं मूंगफली की धुंधिया फिर रामदाना और चने की ( अँधेरे में मूंगफली और चने की धुंधिया हांथों से पहचानना थोड़ा मुश्किल था l जो बिलकुल गोल हो, वह चने की l
मूंगफली की धुंधिया कभी भी पूरी गोल नहीं होती ) फिर क्रमशः गेंहूं के लड्डू, तिल की धुंधिया, लईया का धूंधा, जोन्हरी का धूंधा ( इसका साइज़ इतना बड़ा होता था कि हम बच्चे दोनों हाथों से ही पकड़ पाते थे ) बाजरे के लड्डू और सबसे आखिर में ख़त्म होते थे चावल के लड्डू l इनके ख़त्म होते होते जाड़ा भी लगभग ख़त्म हो चलता l
चावल के लड्डू तो इतने खतरनाक ढंग से कठोर हो जाते थे कि कभी कभी खोपड़ी फोड़ने के काम भी आते l
आज गांव में घुसते ही जब एक चार - पांच साल के बच्चे को तीन बुस्कट के ऊपर दुई ठो सूटर पहन कर साथ में एक लाल रँग का चीकट कनटोप बांधे हुए नाक बहाते और लईया का धूंधा खाते हुए देखा तो समझ गया कि सकठ आसपास ही होगी l
एक बार मैं इसी वेश भूषा में एक बड़ी डहरी की तली में रह गए जोंधरी के धूंधे निकालते हुए सर के बल डहरी के अन्दर गिर गया था l
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