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Showing posts from August, 2018
गांव का एक लड़का ( 9 ) एक बार कक्षा तीन में हमारे मरकहे पंडित जी ने यह प्रस्ताव रखा कि मुझे कक्षा पांच में कुदा दिया जाए l लेकिन मेरी घबराहट और रोने धोने को देखते हुए उन्हें अपने उत्साह और सदाशयता के विचारों की आहुति देनी पड़ी l एक बार तो मैंने गलती से कक्षा छः की गणित की पुस्तक देख ली फिर मुझे सोच - सोच कर जो रोना आया कि हे भगवान् ! मैं ये सवाल कैसे कर पाऊंगा l पांचवी का इम्तेहान बोर्ड इक्जाम होता और पूरे साल स्कूल में यह दोहराया जाता कि कुछ पढ़ लिख लो इस बार बोर्ड है l सीधे फेल कर दिये जाओगे l इम्तेहान में ब्लैकबोर्ड पर जब सवाल लिखे जाने लगे तो समझ में आया कि ये है बोर्ड इक्जाम l खैर, पास हो गए और पास ही नहीं क्लास में टॉप भी किया l उस क्लास में जिसके बाक़ी बच्चे हाईस्कूल की परीक्षा में भी बैठने से वंचित रह गए l ज्यादातर तो पढाई और मार के डर से ही स्कूल छोड़ कर भाग खड़े हुए l कुछ को पारिवारिक गरीबी, पारिवारिक अशिक्षा आदि समस्याओं के कारण भी स्कूल छोड़ना पड़ा होगा l स्कूल छोड़ना एक बहुत स्वाभाविक प्रक्रिया थी जो आस पास हमेशा घटित होती रहती l छठी क्लास के लिए घर से स्कूल की दूरी अब ल
गांव का एक लड़का ( 8 ) गेरू से गाँव - गाँव में स्कूलों और घरों की दीवारों पर एक इबारत लिखी रहती थी जो अभी तक ज्यों का त्यों याद है l " चेचक ( बड़ी माता ) की प्रथम सूचना देने वाले को को रु. १००० का ईनाम दिया जाएगा " मैं सोचता कि चेचक की बड़ी अम्मा कहीं खो गई हैं जिनके लिए ये इश्तेहार है l यह भी सोचता कि चेचक जरूर कोई बड़ा आदमी होगा और अपनी अम्मा को खूब प्यार करता होगा l इसका खुलासा जल्दी ही हो गया जब कंधे पर बक्से लटकाए एक टीम हमारे गाँव आई और सारे बच्चे इकट्ठा किये जाने लगे l इंजेक्शन का नाम सुनकर हम सब भागने लगे l हम तो भागकर अँधेरिया बाग़ में घुस गए l यह आम और जामुन की बाग़ इतनी सघन थी कि दिन में भी खूब अन्धेरा रहता l जाने को तो हम वहाँ चले गए पर वहाँ भांति - भांति की खतरनाक आवाजों ने कुछ मिनटों में ही बाहर निकलने को मजबूर कर दिया l इंजेक्शन का डर उसके आगे काफूर हो गया और हम भागकर भीड़ में शामिल हो गए l कुछ तकली जैसा हाथ पर घुमाने और दर्द का याद है l फिर बाद में दो पैसे के सिक्के के बराबर निशान बन गया जो आज तक मौजूद है l अच्छा हुआ इसी निशान से काम चल गया और ओम प
गांव का एक लड़का ( 7 ) मजे की बात यह थी कि खेती किसानी की इस भीषण मारामारी में भी खेलने का वक्त गाँव के सारे लड़कों के पास होता l उसमे कोई कमी नहीं होती l कमी थी तो बस पढाई में l जब छोटे थे तो छुपम छुपाई, लट्टू नचाते, कंचे खेलते थे l थोड़ा बड़े हुए तो गुल्ली डंडा, कबड्डी, गेंदताड़ी, तैराकी, टुक्का l फुटबाल, वोलीबाल, क्रिकेट आदि खेल किताबों में ही पढ़ते l क्रिकेट कमेंट्री भी किसी को समझ नहीं आती थी l क्रिकेट का पीछा करना तो बहुत बाद में शुरू किया, शायद तिरासी वर्ल्ड कप के बाद l शाम को हम सब बस शगुन करने के लिए ढिबरी या लालटेन जला कर पढ़ाई करते l अन्धेरा होते ही कान दरवाजे पर लग जाते l बाहर पिता जी की साईकिल जैसे ही खड़कती, हम सब भाई बहन जल्दी - जल्दी अपनी किताबें ले कर बैठ जाते l किताबें दूर हुईं तो लालटेन उठाकर उसका शीशा साफ़ करने लगते l बाबा पूरे दिन की गाथा बताते, माहौल जब शांत हो जाता तो थोड़ी ही देर में नींद और बस हो गई पढ़ाई l हाँ नींद से पहले बाबा के साथ किस्सों कहानियों का दौर तो लगभग रोज ही होता था l किस्से उनके तभी शुरू होते थे जब हम बच
गांव का एक लड़का ( 6 ) खेत, खलिहान, गाय भैंस, बैल, खेल में ही सारा जीवन था l पढ़ाई केवल स्कूल तक ही सीमित थी l वहाँ भी पढाई भगवान भरोसे थी l पढाई के लिए कोई इंसेंटिव नहीं था, काम के लिए था l बखारी से अकेले पांच बोरे गेहूं निकालने पर भाई सबकी नजरों में हीरो हो जाते l एक कटोरी खोया - शक्कर भी उसको चुपके से मिल जाता l वहीं अगर मैं पांच घंटे लगातार पढूँ और चार पाठ कंठस्त कर लूं तो यह कामचोरी में गिना जाता l मैं हमेशा से दुबला - पतला, मरियल सा लड़का था l खेती किसानी के काम मेरे बस के थे नहीं, हाँ, पढने का शौक जरूर था l पर उसे कामचोरी मान ली जाती l मेरे बड़े भाई और मैं दो लोग ही थोड़ा इस लायक थे कि कुछ कर सकें, बाक़ी के सब बहुत छोटे थे l ले दे कर हम दोनों की जोड़ी ही आगे लगा दी जाती l बड़े भाई उम्र में तो मुझसे ढाई - तीन साल बड़े थे ही, शरीर में भी बीस थे l यूं तो मैं शुरू से ही कामचोर था पर कोई बहाना चलता ही नहीं था l भाई के साथ मैं भी पीछे - पीछे घिसटता रहता l खेती के कामों से कभी फुर्सत ही नहीं होती l जाड़ों में जब पढ़ाई का समय होना चाहिए, और छमाही के इम्तेहान सर पर
गांव का एक लड़का ( 5 ) बगल के गाँव से खिन्नी काका खेती में काम बंटाने के लिए आते l थोड़े ठिमके से खिन्नी काका के जुड़वां भाई थे रम्मा काका l दोनों को अलग - अलग पहचानना बहुत मुश्किल हो जाता l पचास पार खिन्नी काका सारे काम बहुत धीरे - धीरे करते l खेत जोतने को छोड़ दें तो हम सब खिन्नी काका के साथ ही लगे रहते l चारा काटने की मशीन पर तो रोज ही मुलाक़ात होती l हरा मुलायम चारा तो आसानी से एक आदमी ही काट लेता पर ज्वार और बाजरे के मजबूत सूखी लकड़ी हो चुके गट्ठर को काटना बहुत मेहनत का काम होता l खिन्नी काका अक्सर डंडा पकड़ने से बचते रहते l पनारा पकड़ कर खड़े हो जाते कि जवान लड़के हो तुम लोग मेहनत कर लो अभी नहीं तो जल्दी बुढा जाओगे l खुद चारा मशीन में डालते रहते और हम लोग आँख बंद कर मशीन चलाते रहते l आँख इसलिए बंद करनी होती कि अक्सर छोटे - छोटे टुकड़े निकल कर सीधा नाक, कान, आँख पर अटैक कर रहे होते l जाड़े के अंत में जब भूसा और चारा ख़त्म हो जाता तो धान का पैरा मशीन से काटा जाता l सूखा पैरा काटने पर खूब महीन भूसा नाक मुहँ में घुस जाता l आषाढ़ के तीखे घाम में खिन्नी काका हल बैल लेकर
गांव का एक लड़का ( 4 ) सन्डे को खेती के कामों से उसी को थोड़ी राहत मिलती जिसे इतवारी बाजार की जिम्मेदारी मिलती l हालांकि वहाँ भी झंझट कम नहीं थे l पर उसमें थोड़े पैसे बनाने का भी लालच रहता l आप तो जानते ही हैं कि पैसे का लालच दुनियादारी सीखने के साथ आपसे चिपक लेता है l तो हम भला कैसे अछूते रहते l घर से गेहूं, अरहर, मूंगफली, दाल आदि ले जाते उसे बाजार में बेंचते फिर पूरे हफ्ते का सामान उन्ही पैसों से खरीदा जाता l अक्सर इसके लिए बैलगाड़ी ही इस्तेमाल होती, नहीं तो साईकिल जिंदाबाद l आनाज के मूल्य में हेरफेर करना बेईमानी होती सो उसमे कोई पैसा नहीं बचता l सब्जियों की ख़रीद में जम कर मोलभाव करते और चवन्नी - अठन्नी तो बचा ही लेते और ईमानदारी की भावना भी बची रहती l कभी - कभी हिसाब किताब में पैसे कम पड़ जाते तो मजबूरी में चीजों के दाम बढाकर लिख तो लेते पर कई दिनों तक घबराहट बनी रहती l वाहन के रूप में हमारे पास एक MPV ( मल्टी परपज़ वेहिकिल ) हुआ करता l जिसे हम कभी SUV की तरह इस्तेमाल करते तो कभी मालगाड़ी की तरह l दरअसल बड़ी बैलगाड़ी जो केवल सामान लादने के कार्यों के लिए ही बन
गांव का एक लड़का ( 3 ) स्कूल जाने वाले बच्चे इस लायक हो जाते कि खेती के कामों में हाथ बंटाया करते l करते क्या जबरदस्ती करवाया जाता l स्कूल से लौटते ही घर में काम तैयार बैठे रहते l स्कूल जाने से पहले गोबर - करकट सब बच्चों के जिम्मे ही होता l चचेरे भाई बहनों को मिलाकर हम नौ बच्चे थे l सबसे बड़ी दीदी और छोटी बहनें घर में माँ और चाची का हाँथ बंटाती l हम बाकी बच्चे बाबा का l भाइयों में मैं दूसरे नंबर पर हूँ l मुझे और बड़े भईया की जोड़ी को ही बाहर के लगभग सारे काम करने पड़ते थे l काम के बंटवारे में अक्सर गोबर ही मेरे हाथ आता l जानवरों को चारा देना थोड़ा ज्यादा स्किल्ड काम था सो वह बड़े भाई के हिस्से में आता l दरवाजे पर झाडू लगाने के लिए हम अरहर के सूखे पौधे इस्तेमाल करते l जिन्हें ' झाँखर ' काहा जाता था l झाँखर का खरहंचा बना कर बड़ी आसानी से खड़े - खड़े झाडू लगा लेते l गर्मियों में कभी धूल ज्यादा होती तो पानी का छिडकाव कर खरहंचा मारते l गोबर हटाने का काम बाक़ी दिनों में तो आराम से हो जाता पर बारिश में यह काम बहुत तंग करता l एक हमारी बूढ़ी भैंस थी l वह इतना पतला गोब
गांव का एक लड़का ( 2 ) पुरानी पैंटों से बनाए गए झोलों में हिंदी भाषा और अंकगणित की दो किताबें, सूखी खड़िया के कुछ छोटे टुकड़े, कुछ बड़े कंचड़े, सेंठा और नरकुल की छोटी बड़ी कई कलमें, एक पतली बोरी या टाट का टुकड़ा अधिकृत सामग्रियाँ थीं l अनाधिकृत सामग्री जैसे कंचे, लट् टू, पीले कनेर के बीजों की गोटियाँ, रंगीन ऊन के डोरे, ब्रेड का चिकना रैपर, साइकिल ट्यूब को काट काट कर बनाई हुई गेंद, प्लास्टिक के सस्ते खिलौने और बहुत सारी अनर्गल चीजें भी उसी सहजता से झोले में एक साथ रहतीं l कक्षा तीन और उससे सीनियर बच्चों के झोलों में एक किताब और बढ़ जाती ' विज्ञान आओ करके सीखें ' l पाटी कि जगह कुछ चौसठ पेजी कॉपियां होतीं l कलम के बारे में थोड़ा और बात कर ली जाय l सेंठा हमारे गांव में बहुतायत में था l कहीं नहीं दिखा तो छप्पर से निकाल कर झट से कलम तैयार l बनाने में आसानी और उपलब्धता के चलते सबके झोलों में इसी की कलमें होतीं l स्कूल में कुछ बच्चों के पास नरकुल की कलमें होतीं जिन्हें पाने के लिए हम लालायित रहते l वस्तु विनिमय से या कोई विशेष काम किये जाने पर या दोस्ती को प्रगा
गाँव का एक लड़का ( 1 )       आषाढ़ के एक उमस भरे दिन, गाँव की किसी अँधेरी कोठरी में मेरा जन्म हुआ l ऐसे ही हमारे समय के बच्चे इस दुनिया में आते थे l गांव की ही कोई बुज़ुर्ग महिला प्रसव सहायक होती और बच्चे बुआओं - चाचियों की गोद में चिग्घाड़ना शुरू कर देते l बच्चों के बहुतायत वाले घर में पैदा होना पूरे परिवार के लिए भले ही कोई बहुत आह्लादकारी क्षण न रहा हो पर माँ की ममता तो बस बरस ही पड़ी होगी l माँ बताती हैं कि उस दिन मेरे पैदा होने के बाद खूब बरसे बादल और मैं माँ की गोद में दुबका रहा कई घंटों तक बिना हिले डुले l संयुक्त परिवार के लगभग दर्जन भर भाई बहनों की सालगिरह एक जैसी ही होती l दिन में अम्मा, बुआओं और दादियों के निर्देशन में हाथ ऊंचा करा डोरा नापतीं, काले तिल मिला हुआ दूध पिलातीं, रोचना लगातीं, गुलगुले बनातीं l शाम को बुलउवा होता दीदियाँ, भाभियाँ, चाचियाँ मिलकर ढोलक पीटतीं, गौनई होती, गुलगुले और बताशे बँटते l बस, अगले बच्चे की तारीख तय होती और समारोह ख़त्म l घर से बाहर स्कूल में, दोस्तों के साथ जन्मदिन मनाने का चलन नहीं था l किसी दोस्त का कभी जन्मदिन याद भी नहीं रहा l मेडिक