Skip to main content

Posts

Showing posts from October, 2018
गांव का एक लड़का ( आखिरी अंक ) 1988 में वैसे तो तकनीकी रूप से मैं पीएमटी में सफल नहीं हुआ था पर खुद को मैं असफल भी नहीं मान रहा था. दो - ढाई महीने की पढ़ाई में, जब आप शून्य से शुरू कर रहे हों, ये नंबर बहुत - बहुत अच्छे ही कहे जाने चाहिए. मैं अपने प्रदर्शन से निहायत संतुष्ट था. घर वालों को अब मेरे फटे में टांग अड़ाने की जरूरत महसूस नहीं हुई. उन्हें बस यही दिखाई पड़ता कि मैं लगातार पढ़ रहा हूँ. अब पढ़ाई में आपादमस्तक डूबे बच्चे को भला कोई क्या कहता. सीपीएमटी के अलावा वैसे तो और प्रतियोगी परीक्षाएं थीं. AIIMS. JIPMER, BHU, आल इंडिया सीबीएसई. पर यह सब मेरे लिए नहीं थीं. मैं इस योग्य नहीं था कि इन इम्तहानों में बैठ ही सकूं. ले दे कर मेरे पास अपनी यूपी का सीपीएमटी ही था जिसमे मैं अपना भाग्य आजमा रहा था. रिज़ल्ट निकलने के तुरंत बाद ही कोचिंग में कक्षाएं पूरी गति से चालू हो गईं. इस बार मैं शून्य में नहीं था, अब मेरी तैयारी पूरी थी. मानसिक रूप से भी मैं बाकियों से उन्नीस नहीं था. फार्मूला वही था, ढाई सौ, ढाई सौ, ढाई सौ और फिजिक्स में भागते भूत की लंगोटी भी मंजूर. जूलोजी में तो मैं खुद को
गांव का एक लड़का ( 30 ) चक्रवर्ती सर ने ललकार दिया था और हमने चुनौती भी स्वीकार भी कर ली. पर बाबूजी ! समुद्र तो पार करने से ही पार होना था. डूबने की पूरी - पूरी संभावना थी, लेकिन ऎसी किसी संभावना पर मैंने किसी तरह का कोई विचार करना उचित नहीं समझा. फार्मेसी के रोजगारपरक कोर्स को छोड़कर पीएमटी के बियाबान में खुद को झोंक देना एक पागलपन ही था. मेरे जीवन का यह एक अकेला ऐसा निर्णय था जिसे स्वीकार करने में मुझे छः महीनों का समय लगा. अन्यथा तुरंत निर्णय लेने और फिर बाद में भुगतने के लिए शापित हूँ. भीषण मानसिक घमासान के बाद निर्णय हो चुका था, या तो अब डॉ ही बनूंगा नहीं तो कुछ भी नहीं. जाहिर है कि एक और घमासान अभी घर पर मेरा इंतज़ार कर रहा था. पर यह कोई बड़ी लड़ाई नहीं थी. जैसा कि अंदेशा था, पिताजी और बाक़ी घरवालों ने ( अम्मा को छोड़कर ) खूब दबाव बनाया. रिश्तेदार, सगे संबंधी बुलाये गए. फिर सबने बारी - बारी और समवेत स्वरों में तुलसी बाबा को याद किया, " जाको प्रभु दारुण दुख देही, ताकी मति पहिले हर लेही।” अम्मा ने भी दूध का गिलास हाथ में देते हुए बाबा को ही गुनगुनाया, " राम कीन चाहें
गांव का एक लड़का ( 29 ) जब कानपुर मेडिकल कॉलेज में डी फार्मा कोर्स में प्रवेश लिया तो कोचिंग के साथ लालकुआं वाला कमरा भी छूट गया और लाल साब के यहाँ का ट्यूशन भी. लेकिन लखनऊ की आदत इतनी पड़ गई थी कि लखनऊ नहीं छूट सका. उसी समय कानपुर रोड, लखनऊ में एक नई एलडीए कॉलोनी विकसित हो रही थी. जिसमे एक कमरे वाले एलआईजी मकान के लिए पिताजी ने पहले आवेदन किया था, जो अब एलाट हो गया था. जिसका गृह प्रवेश मैंने और बुआ जी ने मिलकर कर डाला. मैं नहा धो कर पंडित बन गया, बुआजी यजमान. आम की लकडियाँ इकट्ठा कर उसमें हवन सामग्री और घी डालकर दो चार बार ओम - ओम कर लिया. मैंने कुकर में छोले उबाल दिए, बुआ जी ने साथ लाई कढ़ाई में पूरियां तल दीं, हो गया गृह प्रवेश. जैसा गृह वैसा प्रवेश. नए घर में शहर की कम, गाँव की फीलिंग ज्यादा थी. कच्ची सड़कें, आधी - अधूरी सीवर लाइन के चलते दिशा मैदान बाहर ही जाना होता. आसपास गाँव, खेत. लेकिन लालकुआं के उस अँधेरे कुएं से लाख बेहतर था. चारबाग स्टेशन से लगभग दस किलोमीटर की दूरी पर स्थित यह एक कमरे का मकान अब गाँव से और नजदीक आ गया था. मेरा स्थाई पता अब यही था. कानपुर मेडिकल कॉले
गांव का एक लड़का ( 28 ) फार्मेसी में डिप्लोमा कोर्स उन दिनों केवल सरकारी मेडिकल कॉलेजों और सरकारी पॉलिटेक्निक्स में ही होता था l डेढ़ साल के कोर्स के बाद नौकरी आपके हाथ में l क्लास थ्री की सरकारी नौकरी, सरकारी अस्पताल में फार्मासिस्ट l उस समय तक वहाँ पर कोई प्रतीक्षा सूची नहीं थी l पता चला पिछले साल पास हुए सारे बच्चों की नौकरियाँ लग चुकी हैं l केजीएमसी, लखनऊ में फार्मेसी का कोई कोर्स नहीं था उन दिनों l इसलिए सबसे नजदीक जीएसवीएम मेडिकल कॉलेज, कानपुर मुझे आबंटित किया गया l सरकारी नौकरी का आकर्षण तब भी उतना ही था, जितना आज है l गाँव घर में डॉ के नाम से तो जाने ही जाते l गाँव के सरकारी अस्पताल में काम करने वाला वार्ड बॉय भी डॉ ही होता है और बड़े मजे से छोटे मोटे ऑपरेशन निपटाता रहता है l फार्मासिस्ट को तो खैर अधिकार ही होता है दवा - इंजेक्शन का l अभी कुछ समय पहले मैं विधि विज्ञान प्रयोगशाला, लखनऊ से प्रयोगशाला परिचर की पोस्ट के लिए धक्के खाकर लौट आया था l आप अंदाजा लगाइए जिस आदमी को चपरासी की नौकरी नहीं नसीब हो उसे क्लास थ्री की सरकारी नौकरी हाथ लग जाए तो उसे कैसा लग रहा होगा l मैं
गांव का एक लड़का ( 27 ) इसी बीच एक घटना और घटित हुई l करीब चार - पांच महीने पहले एक डी फार्मा ( डिप्लोमा फार्मेसी ) में एडमीशन के लिए लिखित परीक्षा को मैं ऐसे ही दे आया था l यह वह दौर था जब इस तरह की परीक्षाओं में धांधली ने अपने पैर अच्छी तरह से पसार लिए थे l इससे पहले भी लैब टेक्नीशियन, डेंटल हाइजेनिस्ट, आईटीआई, बैंक क्लर्क आदि की अनगिन परीक्षाएं मैं दे चुका था l जिनके नतीजे हमको पहले ही पता रहते l यह इम्तेहान भी मैं देकर भूल चुका था l अचानक एक दिन फार्मेसी कौंसिल से एक रजिस्टर्ड लिफाफा मेरे कमरे के पते पर आ पहुंचा l मैं लिखित परीक्षा में चयनित हो गया था, कुछ दिन बाद साक्षात्कार की तारीख थी l मुझे बहुत आश्चर्य हुआ l यह वही परीक्षा थी जिसका सेंटर क्रिश्चियन कॉलेज में पड़ा था और जिसमे हमको उत्तर पर पेन्सिल से टिक लगाने थे l यह प्रबंध देखते ही मुझे सब माजरा समझ आ गया था और मैं तीन घंटे का पेपर आधे घंटे में दे कर बाहर आ गया था l उसका एक प्रश्न तो मुझे अभी तक याद है l प्रश्न था कि इस वर्ष मिस इंडिया का खिताब किसे दिया गया है? मुझे मिस इंडिया के बारे में तो खैर क्या ही जानकारी रहती l
गांव का एक लड़का ( 26 ) नक़वी सर के फार्मूले से मेरे दिल पर रखा हुआ एक बड़ा पत्थर हट गया था l अब मैं खुल कर सांस ले सकता था l फिजिक्स की किताबें और नोट्स मैंने एक तरफ रख दिए l उनकी तरफ देखना भी बंद कर दिया l फिजिक्स की क्लास में जरूर बैठता पर दिमाग में कुछ और ही चल रहा होता l करीब एक महीना गुजरा होगा और पहला ही टेस्ट मेरे सबसे प्रिय विषय ज़ूलोजी का आ गया l तकरीबन पांच सौ बच्चे रहे होंगे पूरे सेक्शंस को मिलाकर l मेरी रैंक थी चौथी l बहुत सालों के बाद पहली बार कुछ जीतने जैसा अहसास हो रहा था l नक़वी सर ने मुझे घूर कर देखा l उनकी आँखों में मेरे लिए प्रसंशा और वात्सल्य के भाव थे l बाकी सारे बच्चे पहले से ही पढ़ाकू थे और उनका मेरिट में आना तय था l मैं बिलकुल नया था l गाड़ी ने रफ़्तार पकड़ ली थी l फिर एक दिन वही हुआ जिसका मुझे डर था l ऐलान हुआ कि अपने - अपने प्रमाणपत्र और अंकतालिकाएं लेकर ऑफिस में विधिवत प्रवेश प्रक्रिया पूर्ण कराई जाए l पहले तो मैं बचता रहा, पर बकरे की अम्मा कब तक खैर मनाती l मैं हलाल होने के लिए अपने कागज़ समेटे एक छोटे से ऑफिस में पहुँच गया l ऑफिस में केवल केमिस्ट्री वाले
गांव का एक लड़का ( 25 )  एक कोचिंग से ठोकर खा कर लौटने के बाद दुबारा किसी कोचिंग में घुसने के लिए हिम्मत चाहिए थी, जो एक झटके से साइकिल के पंक्चर ट्यूब की तरह फुस्स हो गई थी l कीला तो निकाल फेंका था, पर अभी पंक्चर रिपेयर कर उसमे हवा भरनी शेष थी l बहुत तरह के ख्याल दिमाग में आ रहे थे l किताब उठाई जाय और घोटा लगाया जाय या फिर किसी कोचिंग पढने वाले लड़के से कोचिंग नोट्स ले कर फोटोस्टेट करा लिया जाय l पर मामला कुछ जमता न था l तभी पता चला कि गुलाब सिनेमा के पीछे एक बिलकुल नई कोचिंग पुराने मास्टरों को लेकर गठित हुई है l उन्हें भी सपने देखने वालों का बेसब्री से इंतेज़ार था l अगले दिन हम लोगों की साइकिल दौड़ पड़ी क्रिश्चियन कॉलेज के सामने गुलाब सिनेमा के ठीक पीछे ' सुपीरिअर कोचिंग 'l वहाँ सचमुच में प्रवेश धड़ाधड़ चालू थे l पैसा जमा कीजिए, नाम लिखाइये l अगले दिन से क्लास ज्वाइन कीजिए l अंधे को क्या चाहिए, दो आँखे l फीस भी बहुत कम, केवल पंद्रह सौ रुपये l शिक्षकों और पढाई के बारे में हम दोनों ने कोई पूछ - ताछ बिलकुल भी नहीं की, न ही हमसे हमारी अंकतालिकाओं के बारे में किसी ने कुछ पूछा
गांव का एक लड़का ( 24 ) बी एससी करते हुए पहली बार जाना कि डॉ बनने के लिए एक प्रतियोगी परीक्षा होती है ' सीपीएमटी ' l डॉ कहीं आसमान से नहीं टपकते, हमारे आस पास के लोग ही डॉ बनते हैं l केकेसी का डिग्री सेक्शन पीएमटी के शिक्षकों का गढ़ हुआ करता था l क्लास में पढ़ाते समय ज़ूलोजी के लाल साहेब अक्सर कहते कि कम्पटीशन के लिए पढ़ रहे होते तो तुम्हे बताते कि इसमे किस तरह के सवाल पूछे जाते हैं? शायद कोचिंग में पढने के लिए उकसावा ही होता था l हमारे ग्रुप में भी सीपीएमटी के चर्चे शुरू हुए l दरअसल बायो वालों के लिए हमारे जमाने में ले दे कर बस एक ही प्रतियोगी परीक्षा बचती थी, पीएमटी l उसकी तैयारी के लिए कोचिंग ही एक मात्र रास्ता था l कॉलेज की पढाई के बलबूते तो कुछ होना - जाना नहीं था l सबने अपनी - अपनी परिस्थितियों का आंकलन किया और फिर मैं और सिराज भाई ने फैसला लिया कि अब समय आ गया है कि हजारों - लाखों के झुण्ड के साथ हमें भी पीएमटी - पीएमटी खेलना चाहिए l सिराज के एक बड़े भाई उन दिनों क़तर या जेद्दाह में थे l उसे पैसे की कोई समस्या नहीं थी l दरअसल पैसे के मामले में सबसे मजबूत फिलहाल वही हुआ
गांव का एक लड़का ( 23 ) लाल साहब के तीन छोटे - छोटे बच्चे थे l सब प्राइमरी सेक्शन में, जिन्हें पढ़ाना आसान था l जिंदगी भी कुछ आसान हो चली थी l लाल साहब का उस दौर में बहुत सहारा रहा l अगर वह मुझे पीडब्ल्यूडी की नौकरी की तरफ मोड़ देते तो शायद जीवन कुछ और ही होता l श्रीमती लाल एक बहुत ही भली और उदार महिला थीं l अब वह इस दुनिया में नहीं हैं l ईश्वर उनकी आत्मा को शान्ति दे l मास्साब को कभी केवल चाय से नहीं टरका दिया गया l हमेशा चाय के साथ कुछ खाने के लिए ज रूर होता l बच्चों को पढ़ाने का मतलब मैंने बस डांट - डपट और मारपीट ही सीखा था l उसका भरपूर उपयोग उन नन्हे बच्चों पर मैं भी खूब करता था l अब सोचता हूँ तो खुद अपने आप पर बहुत शर्म आती है l इतने छोटे बच्चों को पढाई के नाम पर कोई कैसे मार सकता है? जब मारपीट ज्यादा हो जाती, तो भाभीजी बस इतना कहतीं, ' मास्साब, सिर के पीछे मत मारा कीजिए, दिमाग पर चोट लग सकती है l' आजकल मास्साब लोग इस तरह करें तो अगले दिन से बाहर हो जाएँ l साल पूरा हुआ और वार्षिक परीक्षाओं में मैं पचास प्रतिशत से ऊपर नंबरों से तीनो विषयों में पास हो गया l अब बी एससी
गांव का एक लड़का ( 22 ) जैसी कि आशंका थी, मैं बी एससी के पहले ही साल में चारो खाने चित्त हो गया था l लेकिन कोई बहुत दिल को ठेस लगी हो, ऐसा भी नहीं था l मुझे पता था कि मैंने कुछ पढाई की ही नहीं थी, सो पास होना बनता भी नहीं था l फेल होने से बुरा तो खैर क्या होता l लेकिन इस एक साल में काफी कुछ अच्छा भी हुआ l जिसने जीवन के युद्धक्षेत्र में बने रहने का हौसला दिया l एक तो यह हुआ कि अंग्रेजी से झिझक कुछ कम हुई, हालांकि अंग्रेजी से प्रगाढ़ दोस्ती तो अभी तक नहीं हो पाई है l अंग्रेजी जब कभी सार्वजनिक रूप से मिलती है तो अभी भी मैं सहज नहीं रह पाता l दूसरा यह हुआ कि पढ़ाने वाले शिक्षकों और साथ पढने वाले कुछ विद्यार्थियों का ज्ञान और विद्याध्ययन के प्रति उनका समर्पण देख कर मन उत्साहित हुआ l वैसे तो अब देर हो चुकी थी और मैं फेल हो चुका था l परन्तु मन में कुछ करने की इच्छा बलवती होने लगी थी l पूरे साल कॉलेज नहीं जाना था, एक साल के बाद केवल इम्तेहान देने थे l अब मैं वाकई खुद कुछ पैसे कमाकर पढाई करना चाहता था l किसी तरह का कोई गुस्सा नहीं था, न अपने ऊपर, न ही दूसरों पर l शहर भी मेरे लिए अब अजनबी