गांव का एक लड़का ( आखिरी अंक ) 1988 में वैसे तो तकनीकी रूप से मैं पीएमटी में सफल नहीं हुआ था पर खुद को मैं असफल भी नहीं मान रहा था. दो - ढाई महीने की पढ़ाई में, जब आप शून्य से शुरू कर रहे हों, ये नंबर बहुत - बहुत अच्छे ही कहे जाने चाहिए. मैं अपने प्रदर्शन से निहायत संतुष्ट था. घर वालों को अब मेरे फटे में टांग अड़ाने की जरूरत महसूस नहीं हुई. उन्हें बस यही दिखाई पड़ता कि मैं लगातार पढ़ रहा हूँ. अब पढ़ाई में आपादमस्तक डूबे बच्चे को भला कोई क्या कहता. सीपीएमटी के अलावा वैसे तो और प्रतियोगी परीक्षाएं थीं. AIIMS. JIPMER, BHU, आल इंडिया सीबीएसई. पर यह सब मेरे लिए नहीं थीं. मैं इस योग्य नहीं था कि इन इम्तहानों में बैठ ही सकूं. ले दे कर मेरे पास अपनी यूपी का सीपीएमटी ही था जिसमे मैं अपना भाग्य आजमा रहा था. रिज़ल्ट निकलने के तुरंत बाद ही कोचिंग में कक्षाएं पूरी गति से चालू हो गईं. इस बार मैं शून्य में नहीं था, अब मेरी तैयारी पूरी थी. मानसिक रूप से भी मैं बाकियों से उन्नीस नहीं था. फार्मूला वही था, ढाई सौ, ढाई सौ, ढाई सौ और फिजिक्स में भागते भूत की लंगोटी भी मंजूर. जूलोजी में तो मैं खुद को
जो सपने हों, सब अपने हों, सपनों का मर जाना कैसा मन की बातें, चाहे तो आप कविता - कहानी, गद्य - पद्य भी कह सकते हैं.