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Showing posts from December, 2019
राजनीति का खेल है, खेलों का सिरमौर घोड़ी चढ़ता और है, फेरे लेता और फेरे लेता और, साथ मे है सहबाला पाँच बजे ही भोर, पड़ गयी है वरमाला वर-सहबाला बीच, नहीं संबंध प्रीति का ये है सच्चा खेल, खेल है राजनीति का
जामा पहिरे मौर धाराए जल्दी ते घोड़ी चढ़ि आए मुला बराती काढ़ें खीस को सखि, साजन? न, ' फणनवीस ' मड़ए पर ते उठि- उठि भागैं भलि-भलि बात ततैया लागैं अब ब्यांचौ तुम चना चबेना का सखि दुलहा? ना, शिवसेना - प्रदीप कुमार शुक्ल
सत्ता हमने सौंप दी, बटमारों के हाथ फिर-फिर देते हैं उन्ही, अय्यारों का साथ अय्यारों का साथ, हमारे मन को भाया लोकतन्त्र को रोज़, ताश का खेल बनाया राजनीति के चतुर, फेंटते हैं बस पत्ता हमको जोकर बना, भोगते हैं सब सत्ता। - प्रदीप कुमार शुक्ल
एक चिड़ा था, एक चिड़ी थी उनके मन मे जंग छिड़ी थी उनकी थी जो नन्ही चिड़िया कितनी भोली, कितनी बढ़िया रात हो रही, कब आएगी? सही सलामत आ पाएगी? चिड़िया गाना गाती आई खुल कर हँसी, खूब मुसकाई बोली, मम्मा मत घबराना जंगल सब जाना पहचाना रस्ते सब आसान यहाँ पर नहीं रहें इंसान यहाँ पर - प्रदीप कुमार शुक्ल
गिलहरी और उसके बच्चे एक गिलहरी के थे तीन बच्चे एक था बदमाश, दो बहुत अच्छे बदमाश बच्चे की शिकायत आई पहले तो मम्मी ने की खूब पिटाई फिर प्यार किया, गले से लगाया और बहुत देर तक उसे समझाया मम्मी ने पापा की ड्यूटी लगाई बहनों की नज़रों मे था उनका भाई बहुत दिनों तक रखी गयी नज़र धीरे - धीरे उस का आया असर पास पड़ोस में कहलाते अच्छे अब गिलहरी के तीनों बच्चे - प्रदीप कुमार शुक्ल
कुत्तों से कब तक वह डरती रस्ता देर सबेर का बिल्ली रानी निकल पड़ी हैं पहन हौसला शेर का। - प्रदीप कुमार शुक्ल
ठंड बड़ी है ------------ आसमान में धुँधला सूरज पेंड़ों से लटका है कुहरा आठ बजे हैं रामदीन तो लिए फावड़ा पिला रहा गेहूँ को पानी निपट भोर से चढ़ा रखे मिट्टी के मोज़े ताज़े पानी के दस्ताने भाप जम रही है खेतों पर, भौहों पर, पलकों के ऊपर यहाँ चाय के प्याले पर मैंने भी देखा मुँह निकाल कर कम्बल से मैं थोड़ा सा अलसा कर बोला - ठंड बड़ी है. - प्रदीप कुमार शुक्ल
दिसंबर -------- 1. मुरझाई किरनें सुबह से ही अवसाद की गठरी लेकर बैठ जाती हैं बरोठे में रह रह कर खांस उठता है मुँह लटकाए मरियल दिसंबर l 2. खा खा कर बथुआ के पराठे रात मुटल्ली कितना तो धीरे धीरे चलती है आठ बजा देती है जाते जाते घोड़े पर सवार दिन कब आया कब गया कुछ पता ही नहीं चलता सलूका पहने, अलाव तापता ये दिसंबर भी ना ! 3. नीच कीच से कमल तोड़ते हुए बच्चे ने ध्यान रखा कीच हांथों पर नहीं लगा यह क्या कम है कुछ पंखुरियां तोड़ कर ही मगन है हाथ को हाथ नहीं सूझता और कमल खिले हैं सरोवर से पहाड़ तक भारी कुहरा छाया रहा इस दिसंबर l 4. काली हरी बाजरे की रोटियाँ रोज खाते हुए मन उकता जाता बदलाव के लिए लाल गुलाबी ज्वार की, थोड़ा मुलायम पर मुझे कभी नहीं भाईं फंडा यह था कि बासी रोटी बाजरा ताज़ी ज्वार की चाय के साथ इन रोटियों ने हमेशा चलने से मना किया जब कभी दूध की कमी हुई तो बाजरे की रोटियाँ गला छीलती हुई बमुश्किल पेट में घुस पाईं बथुए का सगपहिता ताज़ी रोटियों के साथ और बासी को गरम दूध के कटोरे में भुरभुरा कर डाल देने का कॉम्बिनेशन सर्वमान्य, सर्वप्रिय रहा इन्ही काली - गुलाबी रोटि
CAA के खिलाफ़ आंदोलन दरअसल NRC के लिए एंटीसीपेटरी बेल के माफ़िक है। मुझे यह ठीक भी लगता है। परंतु तभी तक जब तक यह अहिंसात्मक रहे और हिंदुओं के खिलाफ़ न हो। इसका असर भी तभी होगा। हालांकि कुछ असर अभी से दिखना शुरू भी हो गया है। संसद में रौद्र रूप धारण किए ग्रुहमंत्री के बयान " 2024 से पहले पूरे देश मे एनआरसी हम लागू कर के रहेंगे ( ऊर्ध्वाधर तर्जिनी के भार सहित ) " के बाद एनआरसी का भ्रम दूर करने के लिए आज के समाचारपत्रों में विज्ञापन की भाषा आप देखेंगे तो आपको फ़र्क साफ़ नज़र आय ेगा। कुछ लोगों का मानना है कि एंटीसीपेटरी बेल की आवश्यकता नहीं है जब एफआईआर होगी तब न मुकदमा लड़िएगा? अभी बेकार मे लत्ते का साँप बना रहे हैं। कुछ कहते हैं, जब आग लगेगी तब कुआं खोदने से क्या लाभ होगा? सयाने लोग समझा रहे हैं, देखिये इस CAA में किसी, मतलब किसी भारतवासी के लिए कोई परेशानी नहीं है, मल्लब बिलकुल्लै नहीं। अब जब एनआरसी के कायदे कानून सामने आएंगे तब न उसकी मेरिट-डिमेरिट पर बातचीत करिएगा। बकिया, गांधी के देश मे हिंसा की कोई जगह बनती नहीं है। यह बात याद रखनी जरूरी है, समय की मांग भी यही है। #
दाढ़ी वाले बाबा / प्रदीप शुक्ल मेरी भी तो सुनते जाओ दाढ़ी वाले बाबा एक बरस के बाद आज तुम फिर से पड़े दिखाई पूरे बरस तुम्हारी ढूंढे नहीं मिली परछाई ऐसे कैसे गुम हो जाओ दाढ़ी वाले बाबा आये, रख कर चले गए कुछ टॉफ़ी और खिलौने तुम को ढंग से देख न पाया लम्बे हो या बौने कभी बिना दाढ़ी के आओ दाढ़ी वाले बाबा मुझे दांत में दर्द हो रहा टॉफ़ी कैसे खाऊँ गेंद तुम्हारी लेकर बाहर कहाँ खेलने जाऊँ मुझको तुम लूडो दिलवाओ दाढ़ी वाले बाबा अच्छा अगले साल सुनो तुम जब क्रिसमस में आना मेरे वाले सभी खिलौने बस्ती में पहुँचाना चाहो सब वापस ले जाओ दाढ़ी वाले बाबा. - प्रदीप कुमार शुक्ल
# गांधीजी_कहिन 1921 में असहयोग आंदोलन के दौरान मुंबई ( तब बॉम्बे ) में जब सड़कों पर पारसियों और क्रिश्चियनों को आंदोलनकारी हिंदुओं-मुस्लिमों द्वारा मारा-पीटा गया तब गांधीजी छुब्ध होकर ' यंग इंडिया ' में लिखते हैं - " यदि हम अल्पसंख्यक पारसियों और क्रिश्चियनों को बर्दाश्त नहीं कर पा रहे तो क्या गारंटी है कि जब सत्ता बहुसंख्यक हिंदुओं के हाथ में होगी तब अल्पसंख्यक मुसलमानों या बहुसंख्यक कमजोर हिंदुओं को प्रताड़ित नहीं किया जाएगा। "
नया साल ---------- नया साल लेकर आयेगा फ़िर से नये बवाल बस मुक़ाबला ही करना है हमें साल दर साल लगता है जो गुजर गया वह एक बुरा था सपना आने वाला समय हमेशा हुआ कहाँ पर अपना नई सुबह लेकर आती है बिलकुल नया सवाल कहीं सवाल सरहदों का है कहीं धर्म की बातें सड़क किनारे कहीं ठिठुरती बैठी भूखी आँतें नए साल में फ़िर आएगी नई सियासी चाल मूर्छित करती रहीं साल भर ये विषभरी हवाएँ राजा रहें होश मे जनता की हैं यही दुआएँ डूबे नहीं नाव फहराता रहे तिरंगा पाल - प्रदीप कुमार शुक्ल
धुआँ-धुआँ हो गयी कहानी बात हो गयी बहुत पुरानी उसकी बस अब यादें मीठी क्या सखि प्रेमी? नहीं, ' अंगीठी ' गलत किया जो उसे बुलाया  गजब ढा रहा जब से आया हमने उसको बहुत लताड़ा क्या सखि साजन? ना, सखि ' जाड़ा ' जाड़े भर उसको दुलराऊँ बाकी समय भूल ही जाऊँ कहता रहे मुझे वह चीटर क्या सखि साजन? ना सखि ' हीटर ' कभी बोलता ले आऊँगा अभी कह रहा नहीं लाऊँगा क्या गुजराती, क्या बनारसी क्या सखि साजन? न, एनआरसी
यहिमा उलरै कै कउन बात ------------------------------ दारू पी कै ल्वाटै लागेव खावव घर मा तुम दूधु भात यहु सालु सार फिरि-फिरि आई यहिमा उलरै कै कउन बात घुरहू ख्यातन मा कांपि रहे मुरहू होटल मा मजा करैं घुरहू हैं साँड़न के पीछे मुरहू गिलास मा बरफ भरैं कुरिया मा घुरहू हैं अक्याल मुलु देस म मुरहुन कै जमात कुछु लोग सुरसुरी छोंड़ि दिहिन जुम्मन अंदर ते कांपि रहे कुछु लोग धुआं सुलगाय दिहिन दुरिही ते आगी तापि रहे कुछु लीन्हे हैं सतरंज बईठ बसि खेलि रहे सह अउर मात हमहू कंबल मा घुसे बईठ औ मुलुर-मुलुर बस झांकि रहेन तुमहू जो मन मा वहै करौ हम अन्न-गन्न बस हांकि रहेन जब-जब हम जादा सोचि लेई तब-तब हमारि मूड़ी पिरात - प्रदीप कुमार शुक्ल
हिरनी की आँखों में डर है असुरों के बच्चों की अम्मा, ने घर में आरती उतारी यहाँ भेड़िये फिर शिकार पर वहाँ सत्र में बहसें जारी गली मुहाने खुली सड़क पर कदम-कदम पर आखेटक है हिरनी की आँखों में डर है सांस रुकी है, दिल धक धक है गाय रंभाती है खूँटे पर दुबक रही बछिया बेचारी नन्ही परियों के पंखों को रोज़ कहीं वे नोच रहे हैं और यहाँ हम बस दशकों से मुँह लटकाए सोच रहे हैं आधी आबादी के मन में असंतोष की लपटें भारी - प्रदीप कुमार शुक्ल
गिलहरी और उसके बच्चे एक गिलहरी के थे तीन बच्चे एक था बदमाश, दो बहुत अच्छे बदमाश बच्चे की शिकायत आई पहले तो मम्मी ने की खूब पिटाई फिर प्यार किया, गले से लगाया और बहुत देर तक उसे समझाया मम्मी ने पापा की ड्यूटी लगाई बहनों की नज़रों मे था उनका भाई बहुत दिनों तक रखी गयी नज़र धीरे - धीरे उस का आया असर पास पड़ोस में कहलाते अच्छे अब गिलहरी के तीनों बच्चे - प्रदीप कुमार शुक्ल
एक चिड़ा था, एक चिड़ी थी उनके मन मे जंग छिड़ी थी उनकी थी जो नन्ही चिड़िया कितनी भोली, कितनी बढ़िया रात हो रही, कब आएगी? सही सलामत आ पाएगी? चिड़िया गाना गाती आई खुल कर हँसी, खूब मुसकाई बोली, मम्मा मत घबराना जंगल सब जाना पहचाना रस्ते सब आसान यहाँ पर नहीं रहें इंसान यहाँ पर - प्रदीप कुमार शुक्ल
आज संविधान दिवस पर सवाल यह है कि जब जनता ने भाजपा-शिवसेना गठबंधन को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किया था तो महामहिम ने अजित दादा को सत्ता पर कब्जा क्यों दिया? श्रीमान फणनवीस जी ने हर रैली मे ' दादा को जेल भिजवाईंग और चक्की पिसाईंग ' का भाषण पिला कर वोट मांगा। जनता ने उनको और उद्धव को सीटें इसीलिए दीं कि हजारों करोड़ के सिंचाई घोटालों मे कथित तौर पर संलिप्त अजित दादा को जेल भेजा जाये। बहुत लोगों ने इसलिए भी भाजपा-शिवसेना को वोट किया कि हमारे युगपुरुष मोदी जी के ' न खाऊँगा न  खाने दूंगा ' वाले जुमले पर उनको विश्वास था। सत्ता के लिए लार टपकाते दूसरे धड़े का भी यही हाल है। जब आप ने एक दूसरे की कमियाँ गिनाकर, गालियां देकर वोट मांगे तो अब गलबहियाँ कैसे कर सकते हैं? उत्तर है : संविधान इसकी इजाज़त देता है। जब कि होना यह चाहिए कि चुनाव पूर्व गठबंधन मे अगर सत्ता की मलाई बांटने मे सहमति नहीं बनती तो सभी को वापस जनता की राय लेनी चाहिए, अनिवार्य रूप से। चुनाव के बाद किसी भी तरह का गठबंधन अनैतिक है। अगर हमारा संविधान इस अनैतिकता को न्यायसम्मत मानता है तो उसमें संशोधन की आवश्
सत्ता हमने सौंप दी, बटमारों के हाथ फिर-फिर देते हैं उन्ही, अय्यारों का साथ अय्यारों का साथ, हमारे मन को भाया लोकतन्त्र को रोज़, ताश का खेल बनाया राजनीति के चतुर, फेंटते हैं बस पत्ता हमको जोकर बना, भोगते हैं सब सत्ता। - प्रदीप कुमार शुक्ल
ये प्रांशू हैं। पिलास्टिक का मग्घा पाकर खुश हैं। एक उद्धव भैया हैं, उप मुख्यमंत्री की कुर्सी और आधा राजपाट मिलने के बाद भी खुश नहीं। खैर, हमको क्या। हमको तो इन भैया से मतलब। अभी गेहूं बोने के लिए खेत की छपाई कर रहे हैं, मतलब पानी लगा रहे हैं, मतलब सिंचाई कर रहे हैं। इनके साथ इनकी छोटी बहन प्रियांशी और अम्मा भी हैं। दुकान से बिस्कुट लेने गए थे, हमको रास्ते मे मिल गए। इनका कप नीले रंग का है तो जाहिर है कि प्रियांशी का कप ज्यादा चमकदार गुलाबी रंग का होगा। प्रियांशी की अ म्मा की ख़ुशी भले आप घूँघट की वजह से देख न पा रहे हों, पर वह हैं। उधर ऊधौ भैया के दुलरुआ को चाहे सोने का कप दे दो तो भी वह खुश न होंगे। खैर, हमको क्या करना जी। अपुन तो बस अईसेइच ख़ुश है।
मड़ए पर ते उठि- उठि भागैं भलि-भलि बात ततैया लागैं अब ब्यांचौ तुम चना चबेना का सखि दुलहा? ना, शिवसेना - प्रदीप कुमार शुक्ल जामा पहिरे मौर धाराए  जल्दी ते घोड़ी चढ़ि आए  मुला बराती काढ़ें खीस  को सखि, साजन? न, ' फणनवीस '
राजनीति का खेल है, खेलों का सिरमौर घोड़ी चढ़ता और है, फेरे लेता और फेरे लेता और, साथ मे है सहबाला पाँच बजे ही भोर, पड़ गयी है वरमाला वर-सहबाला बीच, नहीं संबंध प्रीति का ये है सच्चा खेल, खेल है राजनीति का
हमने देखा - हमने देखा एक घुमक्कड़ जोड़ा पैदल चले, कभी तो सरपट लेकर दौड़े घोड़ा अभी-अभी ये चित्रकूट मे परिक्रमा थे करते जयपुर में ये अभी दिखे हैं बोतल पानी भरते पलक झपकते महाबालेश्वर में ये हैं पाये जाते अगले दिन ये सोमनाथ में दिखें खाखरा खाते रामेश्वरम से लिया नारियल विश्वनाथ में फोड़ा संडे को खा रहे गाँव में बैठे लिट्टी चोखा मंडे को ये चौपाटी में खोज रहे हैं खोखा बैंड स्टैंड बांद्रा जा कर कार लिए ये घूमें नवी मुंबई टॉप फ्लोर पर आसमान को चूमें घुमक्कड़ी में ख़ुशी बहुत है पैसा लगता थोड़ा सुनो भाइयों बहुत घुमक्कड़ मेरे चाचा-चाची इनके आगे पीछे भैया पूरी दुनिया नाची काश हमें भी मौका मिलता साथ भ्रमण कर लेते और फ़ेसबुक पर सब फ़ोटो रोज चेंप एचएम देते लेकिन छुट्टी नहीं काम ने हमको खूब निचोड़ा
नवगीत महोत्सव से लौटते हुए आयोजक को हमने जी भर खुले आम गरियाया और इस तरह फिर हम सबने अपना धर्म निभाया पहले तो नखरे पेले, हम कहीं नहीं अब जाते ट्रेन छूटती देखी तो फिर बोला, हम हैं आते ज्ञान गठरिया अहंकार के कंधों पर उठवाया बना माथ पर व्यस्त लकीरें हमने उन्हे दिखाया सुबह-शाम बस हम भकोस कर लड्डू पूरी खाते मगर भला तारीफ़ों के दो शब्द कहाँ कह पाते मीठी खीर फेंक हमने उसको कड़वा बतलाया जहर बुझे तीरों को हमने अंधाधुंध चलाया अपनी ढपली पर हम हरदम अपना राग बजाते सदा दूसरे की सरगम पर अपने कान खुजाते और किसी की नहीं सुनी बस अपना गाल बजाया सबको बौना खुद को हमने सात हांथ बतलाया - प्रदीप कुमार शुक्ल
पुराने वाले दोस्त कई पुराने दोस्त कभी जब मिलने आते हैं बीते हुए समय को फिर से वापस लाते हैं दिल्ली से आया है, कोई आबूधाबी से मन के द्वार खुले हैं सारे मन की चाबी से रात-रात भर बैठे जाने क्या बतियाते हैं कनपुरिया जब बोले तो बोलता चला जाये और धामपुर वाला धीरे-धीरे मुसकाए सब मिलकर फिर यादों की सिगरेट सुलगाते हैं एक बिहारी सब पर भारी कभी नहीं बदला पाँच बजे ही उठकर लंबू पंद्रह मील चला सब पकवान छोड़ कर लिट्टी-चोखा खाते हैं कुछ जो छिपे रहे बरसों तक आए हैं खुल कर कुछ हैं फंसे लेह मे करते कॉल वीडियो पर आ न सके जो, देख-देख कर बस ललचाते हैं कैंसिल कर के टिकट किसी की, सबने रोक लिया और किसी ने याद किया फिर सारी रात पिया दुख के जबड़ों से हम यूं ही खुशी चुराते हैं। - प्रदीप कुमार शुक्ल
धरती का बच्चा नन्हा बीज आलसी था था सबसे छिपकर सोया चंचल बहती हवा, धूप के सपनों मे था खोया नींद खुली, आँखों को मलता जब वह बाहर आया धूल, धुआँ, चिड़चिड़ी हवा को पाकर वह घबराया लगा छींकने, खाँसा फिर बीमार हो गया गोया नन्हा बीज बना जब पौधा बहुत दिनों तक रोया - प्रदीप कुमार शुक्ल
घोड़ा ( बाल कविता ) एक नेता ने ख़रीदा एक घोड़ा गरीब के सिर पर नारियल फोड़ा घोड़ा माल खाता रहा गरीब सिर सहलाता रहा फ़िर घोड़े ने नेता को उछाल कर गिराया एक और नेता को पीठ पर बिठाया अब घोड़ा ख़ुद एक नेता है सारी घास ख़ुद लपक लेता है आजकल मुंबई मे है मेला और घोड़ा नहीं है अकेला। - प्रदीप कुमार शुक्ल
चुनावी ऋणपत्र और अलाने-फलाने अच्छा, चुनावी ऋणपत्र ( इलेक्टोरल बॉन्ड ) का खेला भी कमाल का है। भारतीय राजनीति के महान अर्थशास्त्री श्रीमान अरुण जेटली जी के चाहने वाले सभी दलों में ऐसे ही नहीं भरे पड़े हैं। यह उन्ही का दिमागी बच्चा है। इसको सरल भाषा में ऐसे समझिए। एक हैं अलाने जिनको पाल्टी पूरे चुनाव भर पानी पी-पी कर गरियाती है। दुनिया जानती है कि अलाने के नंबर दो के धंधे हैं। पाल्टी के अब्बा, ताऊ, चाचा, भतीजा उसको सुबह - शाम गाली देने के बाद नाश्ता करते हैं। पर मुश्किल यह है कि न तो अलाने का काम पाल्टी के बगैर चल सकता है और न पाल्टी का काम अलाने के बगैर। तो बस इसी के लिए इलेक्टोराल बॉन्ड नाम का खेला, खेला जाता है। आइये देखते हैं कैसे। अलाने को अपना काम कराने के लिए ( मतलब जनता का खून चूसने के लिए ) पार्टी ( सरकार पढ़ा जाये ) को सौ ( करोड़ आदि पढ़ लिया जाये ) रुपये का चढ़ावा चढ़ाना है। बैंक के पैसे अलाने पार्टी को देना नहीं चाहते। एक तो बैंक मे पैसे डालने-निकालने की उनकी आदत नहीं और दूसरे कल को बात खुले तो पाल्टी को दिक्कत हो जाने का। अच्छा खैर, तो अलाने ने एक सौ दस रुपये के बोरे