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Showing posts from May, 2021
  फैलता उजाला हो मन के अँधियारों में फैलता उजाला हो बुरी नज़र वालों का मुँह फिर से काला हो तम से जम कर प्यारे फिर दो - दो हाथ हों और इस लड़ाई में अपने सब साथ हों ईर्ष्या के कमरे पर नेह का ताला हो कार्टून के बदले केवल कार्टून हो सड़कों पर नहीं केवल रगों में खून हो गर्दन पर चाकू नहीं, फूलों की माला हो छिटकी सी धूप हो, नीला आकाश हो सांस में सांस हो, जीने की आस हो मौला यह सबको दे लाली हो, लाला हो खील हो बताशे हों लक्ष्मी - गणेश हों पुरखों की आशीषें हम पर अशेष हों डेहरी हो, आँगन हो, दीया हो, आला हो - प्रदीप कुमार शुक्ल
  आह ! ग्राम्य जीवन भी क्या है ( राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त से क्षमा याचना सहित ) आह, ग्राम्य जीवन भी क्या है क्यों न यहाँ से सब जन भागें बहुत कठिन निर्वाह यहाँ है ये बदहाली और कहाँ है? यहाँ शहर की बात नहीं है कोई भी औकात नहीं है हाड़ तोड़ सब काम यहीं हैं फसलों के पर दाम नहीं हैं अनाचार ही अनाचार है यहाँ जिंदगी तक उधार है हाथों में, दिल पर हैं छाले हैं ग्रामीण मनुष्य निराले आह, ग्राम्य जीवन भी क्या है क्यों न यहाँ से सब जन भागें बहुत कठिन निर्वाह यहाँ है ये बदहाली और कहाँ है? शहरों से संकरी गलियां हैं फोन लिए उन पर छलिया हैं चौराहों पर आखेटक हैं सड़कों पर हैं, खेतों तक हैं राजनीति के रँग पसरे हैं जाति धर्म के घाव हरे हैं यहाँ गाँव में दुख गहरे हैं सत्ता में बैठे बहरे हैं आह, ग्राम्य जीवन भी क्या है क्यों न यहाँ से सब जन भागें बहुत कठिन निर्वाह यहाँ है ये बदहाली और कहाँ है? - प्रदीप कुमार शुक्ल ( 2020 )
  यहिमा उलरै कै कउन बात? ------------------------------ दारू पी कै ल्वाटै लागेव खावव घर मा तुम दूधु भात यहु नवा सालु फिरि-फिरि आई यहिमा उलरै कै कउन बात? घुरहू ख्यातन मा कांपि रहे मुरहू होटल मा मजा करैं घुरहू हैं साँड़न के पीछे मुरहू गिलास मा बरफ भरैं कुरिया मा घुरहू हैं अक्याल मुलु देस म मुरहुन कै जमात कुछु लोग सुरसुरी छोंड़ि दिहिन जुम्मन अंदर ते कांपि रहे कुछु लोग धुआं सुलगाय दिहिन दुरिही ते आगी तापि रहे कुछु लीन्हे हैं सतरंज बइठ बसि खेलि रहे सह अउर मात हमहू कंबल मा घुसे बईठ औ मुलुर-मुलुर बस झांकि रहेन तुमहू जो मन मा वहै करौ हम सन्न-गन्न बस हांकि रहेन जब-जब हम जादा सोचि लेइ तब-तब हमारि मूड़ी पिरात - प्रदीप कुमार शुक्ल ( 2019 )
  सुरूऐ साल मा करोना आवा अउर फिर सालु भरि रोना आवा दवाई कउनिव अबै नहिंयै आई थारी बाजि काका क टोना आवा दूधु कूकुर बिलार सब पिया कींहिन हमरे हिस्से म छूँछ भगोना आवा यादि फिरि आईं बहुतु अम्मा हमका जइसहे थारी मा निमोना आवा अउरे सालन हुड़दंगु रहै, मउज रहै ई करोना म हीटरु धरा कोना आवा - प्रदीप कुमार शुक्ल ( 2020 )
  चींटे का पड़ोसी एक पड़ोसी लड़ने आया बना आग का गोला चींटे ने शक्कर खाई फिर मीठा - मीठा बोला चींटी आई, मुसकाई जब मीठा शरबत घोला जाते हुए पड़ोसी ने तब बदला अपना चोला - प्रदीप कुमार शुक्ल ( 2021 )
  आए हो, कोई मज़बूरी लगती है खुल कर बोलो बात अधूरी लगती है वैसे तो ये बात ज़रूरी है लेकिन तुमसे कहना गैरज़रूरी लगती है ख़त्म नहीं हो पाया पल वो सदियों तक कहने को पल भर की दूरी लगती है प्यार खोजती रही उम्र भर यहाँ-वहाँ लड़की यह हिरनी कस्तूरी लगती है कैसे-कैसे ख़्वाब दिखाये थे उसने जब भी सोचूँ दिल पर छूरी लगती है यहाँ हमारे अरमानों का खून बहा उनको लेकिन शाम सिंदूरी लगती है मुलाक़ात थी उनसे मगर उछाह नहीं हमको तो बस खाना पूरी लगती है - प्रदीप कुमार शुक्ल ( 2021 )
  सूरज बेटा सुबह सबेरे बिस्तर से जब सूरज उतरा मंजन कर फिर उसने थोड़ा कुहरा कुतरा उत्तर को चल पड़ा बदल दीं अपनी राहें धरती अम्मा ने फैला दी दोनों बाहें अम्मा बोलीं-बेटा, खिचड़ी खा कर जाना लेकिन उसके पहले तुमको पड़े नहाना सूरज भागा फिर से कर के वही बहाना मम्मा मुझको छत पर अभी पतंग उड़ाना - प्रदीप कुमार शुक्ल ( 2021 )
  चींची और उसकी मम्मी चींची लगातार मम्मी से झगड़ रही थी अपनी चोंच घोसले में रगड़ रही थी मम्मी उसके पंखों को सहला रही थी गाना गाकर, थपकी दे सुला रही थी चींची बोली-मैं जरा बाहर झांक लूं न बेटा, बाहर खड़ा है ' एवियन फ़्लू ' मम्मा, जैसे मुन्नू के घर के आगे ' कोरोना?' इतना कहते ही चींची को आ गया रोना बोली, मुन्नू को तो अब वैक्सीन लग जाएगी पर मम्मा, हमारी वैक्सीन कब आएगी? सोचो अब मम्मी, चींची को क्या बताएगी? - प्रदीप कुमार शुक्ल ( 2021 )
  होली में वह जब घर आये मन में, तन में रस घुल जाये उसको लेकर खोजूं तकिया क्या सखि साजन? नहीं, ' पिरकिया ' ( पिरकिया - गुझिया ) - प्रदीप कुमार शुक्ल
  इस छुट्टी में / प्रदीप शुक्ल इस छुट्टी में आओ बच्चों चलें गाँव की ओर मोटरगाड़ी, मॉल, सिनेमा से कुछ दिन की छुट्टी ए सी कूलर से कर लें हम थोड़े दिन तक कुट्टी छोड़ चलें हम महानगर का यह बड़बोला शोर इस छुट्टी में आओ बच्चों चलें गाँव की ओर आओ देखें चलकर खेतों में फैली हरियाली बासों के झुरमुट में रस्ता देखे कोयल काली यहाँ देख कर दिन भर टी वी हो जाओगे बोर इस छुट्टी में आओ बच्चों चलें गाँव की ओर छत पर चंदा के संग होंगी प्यारी दादी नानी ले जायेंगे साथ यहाँ से अपनी मच्छरदानी चिड़िया बोलेंगी कानों में उठो हो गई भोर इस छुट्टी में आओ बच्चों चलें गाँव की ओर सुबह सबेरे किरणें करती मिल जायेंगी जादू ओस बनी मोती की माला दिखलायेंगे दादू पापा से बोलो चलना है ज़रा लगा कर जोर इस छुट्टी में आओ बच्चों चलें गाँव की ओर. # डॉ. प्रदीप शुक्ल 29.03.2016
  दशरथ नंदन हौ कहाँ, कहाँ छुपे हौ राम जल्दी ते अवतरौ तुम, तुमते बीसन काम तुमते बीसन काम, परा है छपरा छावा तीन दफा गोहराय, कोउ झाँकै ना आवा रावन घूमै गांव, लगाए माथे चन्दन बांदर गे पग्ल्याय, कहाँ हौ दशरथ नंदन - प्रदीप कुमार शुक्ल
  रहिमन सिट साइलेंटली, घर मा पूँछि दबाय बाहर वॉकिंग कोरोना, दउरि क लेइ उठाय।
  साइकिल मेरी बहुत दुखी है। खड़ी हुई दीवार सहारे दुखी नज़र से गेट निहारे बाहर हवा पुकारे उसको पेड़ बुलाएँ सड़क किनारे कैसे मैं उसको समझाऊँ प्यार करूँ मैं गले लगाऊँ साइकिल मेरी बहुत दुखी है पहले वह जाती थी स्कूल डालों पर हँसते थे फूल गलियों-गलियों से परिचिय था अब सब गयी रास्ते भूल घंटों मैं उससे बतियाऊँ हौले उसका सिर सहलाऊँ साइकिल मेरी बहुत दुखी है अँधियारे में छिपी खड़ी है जाने कैसी विकट घड़ी है हवा नहीं है, हिम्मत टूटी उम्मीदों पर धूल पड़ी है क्या कहकर उसको बहलाऊँ कैसे मैं ढाढ़स बंधवाऊँ साइकिल मेरी बहुत दुखी है। - प्रदीप कुमार शुक्ल ( 2021 )