फैलता उजाला हो मन के अँधियारों में फैलता उजाला हो बुरी नज़र वालों का मुँह फिर से काला हो तम से जम कर प्यारे फिर दो - दो हाथ हों और इस लड़ाई में अपने सब साथ हों ईर्ष्या के कमरे पर नेह का ताला हो कार्टून के बदले केवल कार्टून हो सड़कों पर नहीं केवल रगों में खून हो गर्दन पर चाकू नहीं, फूलों की माला हो छिटकी सी धूप हो, नीला आकाश हो सांस में सांस हो, जीने की आस हो मौला यह सबको दे लाली हो, लाला हो खील हो बताशे हों लक्ष्मी - गणेश हों पुरखों की आशीषें हम पर अशेष हों डेहरी हो, आँगन हो, दीया हो, आला हो - प्रदीप कुमार शुक्ल
जो सपने हों, सब अपने हों, सपनों का मर जाना कैसा मन की बातें, चाहे तो आप कविता - कहानी, गद्य - पद्य भी कह सकते हैं.