चाय पर चर्चा
चाय का नशा अफीम के बराबर तो नहीं ही होता है, पर साहब बहुत कम भी नहीं होता. चाय और अफीम दोनों के नशे को मैंने बहुत करीब से देखा है. मेरे बाबा अफीम का नशा करते थे. उसे वह दवाई कहते थे और हम भी दवाई ही समझते थे. उस पर चर्चा फिर कभी. चाय के नशेड़ी तो हम खुद ही हैं. पर इन सबसे ज्यादा बड़ा नशा होता है पैसे बनाने का और शोहरत कमाने का.
अब नशा तो नशा है, बस लग भर जाए. चाय का नशा अंग्रेजों को कैसे लगा यह तो प्रवीण झा जी बताएँगे, पर चीनियों को अफीम की लत लगवाने में चाय की महत्वपूर्ण भूमिका रही है यह हम सब जानते हैं.
हुआ यूं कि फिरंगियों को चाय की लत इस कदर लगी कि उनका बहुत सारा पैसा चाय की पत्ती के एवज़ में चीन में इकट्ठा होने लगा. उसके अनुपात में चीन फिरंगियों से ज्यादा कुछ नहीं ख़रीदता. अब व्यापार घाटा दनादन बढ़ने लगा. तो उसकी काट के लिए गोरे लोगों ने अफ़ीम नामक अस्त्र खोज लिया. यह उनके लिए बहुत फायदे का व्यापार साबित हुआ. वे अफीम की खेती मालवा में करवाते और बाम्बे से उसे चीन भेज देते. वहाँ चीनी अफीम पी कर मस्त रहने लगे. अफीम की पिनक में चीनी इतना मस्त हो गए कि एक छोटे से देश जापान ने उन पर चढ़ाई कर दी और उसकी इज्ज़त की वाट लगा दी. उसकी तिलमिलाहट चीन के दिल में जापान के लिए अभी भी देखी जा सकती है.
हालात यह थे कि बाम्बे के समाचार पत्रों में सेंसेक्स की तरह अफ़ीम के भाव रोज सार्वजनिक रूप से छापे जाते थे. उसी कारोबार में पैसा बनाने और शोहरत कमाने का नशा लेकर गुजरात में पैदा हुए और अक्खा बंबई ( अब मुम्बई ) पर राज करने वाले थे एक पारसी ' जमशेतजी जीजीभाई. ' जिन्हें हम आज भी जे जे के नाम से जानते हैं. जे जे हॉस्पिटल, जे जे आर्ट्स कॉलेज और न जाने क्या - क्या.
बाद के दिनों में जब जमशेतजी जीजीभाई पर पैसा बनाने का नशा कम हुआ और शोहरत कमाने के नशे ने जोर पकड़ा तो उन्होंने अफ़ीम का कारोबार अपने बेटे को दिया और खुद उससे अलग हो गए.
जीजीभाई ने अपने जीवन काल में लगभग सौ करोड़ रुपये हिन्दुस्तान की जनता को दान किये. और यह संभव हुआ पहले चाय के नशे के कारण फिर शोहरत के नशे कारण.
तो भइये, नशा कोई इतनी भी बुरी चीज नहीं है, चाय का नशा तो बिलकुल भी नहीं.
- प्रदीप कुमार शुक्ल
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