गुरू और चेला
१२ जून, १९०५ को पूना में गोपाल कृष्ण गोखले ने ' सर्वन्ट्स ऑफ़ इंडिया ' नामक संस्था बना कर सामाजिक कार्यों की तरफ बाबा का ध्यान खींचा. योग्य और अनुभवी गोखले को बाबा ने अपना गुरू मान लिया. गुरू ने भी अपने शिष्य का बाहें फैला कर स्वागत किया. दो दशकों तक देश से बाहर रह रहे बाबा को अपने गुरू के जरिये भारत की वर्तमान सामाजिक और राजनीतिक परिवेश की झलक मिलती रही. कुछ वक्तिगत मुलाकातों से, पर ज्यादातर पत्रों के द्वारा.
दक्षिण अफ्रीका के अपने अनुभव को हिन्दुस्तान में इस्तेमाल करने से पहले वह एक बार फिर गुरू गोखले से मिलना चाहते थे. तो १९१४ में दक्षिण अफ्रीका से सीधा हिन्दुस्तान आने के बजाय उन्होंने लन्दन जाना उचित समझा. गोखले जी फिलहाल लन्दन प्रवास पर थे.
गुरू को शिष्य पर अगाध भरोसा था और वह उन्हें अपनी संस्था में लाना चाहते थे. बाबा को लगता था कि सामाजिक मुद्दों को राजनीतिक सीढ़ी की आवश्यकता है. गोखले जी अपनी संस्था को राजनीति की चासनी से दूर रखना चाहते थे.
यह प्रसंग पढ़ते हुए मुझे अचानक अन्ना और केजरीवाल याद आने लगे. एक वो थे और एक ये हैं.
खैर, गुरू ने शिष्य को मन्त्र दिया कि देश को बिना जाने तुम्हारे राजनीतिक विचार खोखले होंगे. सो, पहले एक साल तक देश को अन्दर से देखो, उसे महसूस करो फिर जैसे तुम्हे ठीक लगे शुरुआत करो. मैंने तुम्हे सर्वन्ट्स ऑफ़ इंडिया का सर्वन्ट मान लिया है तुम सदस्य बनो या नहीं.
अभी बाबा और बा देशाटन के लिए निकले ही थे कि शान्तिनिकेतन की शान्ति को भंग करती हुई खबर आई, गुरुवर नहीं रहे. गोपाल कृष्ण गोखले जिनसे बाबा को अभी आगे के लिए दिशानिर्देश लेना था, दिवंगत हो चुके थे.
बाबा का पहला राजनीतिक भाषण अपने राजनीतिक गुरू की सलाह के बिना ही होना था. .....
( पढ़ते - पढ़ते )
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