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सत्याग्रह आश्रम
उन्नीस सौ पंद्रह में ( गांधी ) बाबा और ( कस्तूर ) बा ने साउथ अफ्रीका से लौटने के बाद अहमदाबाद में अपना पहला आश्रम खोलने की सोची. सोचा तो बाबा ने ही होगा और बा ने हामी भारी होगी. साबरमती के किनारे जगह तलाश की जाने लगी. साथ ही प्रायोजक भी तलाशे जाने लगे. ११ मई, १९१५ को एक गुजराती सेठ मंगलदास गिरिधरदास को बाबा ने आश्रम के लिए सामान की जो लिस्ट थमाई उसमे पतीलों का साइज़ और चाय के कपों की संख्या भी शामिल थी. जमीन और बिल्डिंग को छोड़कर तकरीबन पचास व्यक्तियों के लिए एक साल का खर्चा जोड़ा गया रु. छ: हजार.
सेठ मंगलदास गिरिधरदास ने हरी झंडी दिखाई और बाबा ने बा के साथ २० जुलाई, १९१५ को साबरमती के दूसरी तरफ जीवनलाल देसाई के खाली पड़े बड़े से बंगले में आश्रम की शुरुआत कर दी.
आश्रम के नामकरण के लिए दो सुझावों पर विचार हुआ, ' सेवाश्रम ' और ' तपोवन ' पर नाम धराया गया " सत्याग्रह आश्रम."
आश्रम के संविधान में छुआछूत निवारण का विशेष रूप से उल्लेख किया गया और सर्व धर्म समभाव, विशेषकर हिन्दू - मुस्लिम एकता का भी. इसी संविधान को पढ़कर एक सामाजिक कार्यकर्ता ए वी ठक्कर ने बाबा को ख़त लिखा कि एक ईमानदार और बहुत गरीब दलित परिवार आपके आश्रम में रहना चाहता है. आप की अनुमति है?
कुछ दिन बाद दूधाभाई, दानीबेन और उनकी छोटी सी लड़की लक्ष्मी आश्रम में हाजिर थे. इस दलित परिवार का खूब - खूब विरोध हुआ. सबसे ज्यादा विरोध करने वालों में बा भी शामिल थीं. बाबा ने बा से कहा कि अगर वह चाहें तो आश्रम छोड़ कर जा सकती हैं पर ये लोग तो यहीं रहेंगे. दीना बेन को जब कुँए से पानी लेने से मना किया गया तो बाबा ने कहा कि फिर मैं भी इस कुँए का पानी नहीं पीयूँगा.
यह परेशानी तो बाबा के बस में थी तो हल हो गई. असली परेशानी तो अब आने वाली थी. सेठ मंगलदास गिरिधरदास कट्टर हिन्दू थे. वह जब अपनी फैक्ट्री से लौटते तो गंगाजल से शुद्ध होने के बाद ही घर में कदम रखते थे. उन्होंने अगले महीने से ही आश्रम का पैसा बंद कर दिया. तीन महीने बाद ही सत्याग्रह आश्रम उजड़ने वाला था.
आज हम कितनी ही गालियाँ देश के बड़े व्यापारिक घरानों को दें पर पैसा उन्ही के पास था. और वही पैसा देश की दशा और दिशा बदलने का साधन बना. अबकी बार सेठ अम्बालाल साराभाई आगे आये और एक शाम बिना आश्रम में कदम रखे कार के अन्दर से ही तेरह हजार रुपयों का बण्डल बाबा को थमा कर वापस हो लिए.
आश्रम अब अगले दो सालों तक निर्विघ्न रूप से चल सकता था ......
( पढ़ते - पढ़ते )

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