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राज कुमार शुक्ला, चंपारण वाले
दिसंबर १९१६ में लखनऊ में कांग्रेस का इकत्तीसवाँ अधिवेशन हो रहा था. यह इस मायने में महत्वपूर्ण था कि उसी समय यहीं पर मुस्लिम लीग का अधिवेशन भी रखा गया था. जिसकी कमान जिन्ना के हाथ में थी. कांग्रेस की पगही गरम दल के माने जाने वाले बाल गंगाधर तिलक संभाल रहे थे. यह संयुक्त अधिवेशन इसलिए भी महत्वपूर्ण था कि इसमें कांगेस के नरम - गरम दोनों धड़े शिरकत कर रहे थे.
यहीं चारबाग स्टेशन पर अलग - अलग दिशाओं से आकर सत्ताईस वर्षीय जवाहर और सैंतालिस वर्षीय गांधी पहली बार आमने - सामने हुए. करीब बीस मिनट की मुलाक़ात में नेहरु को गांधी में राजनीतिक व्यक्तित्व के कोई दर्शन नहीं हुए. वह तो बाद में अधिवेशन के दौरान गांधी ने नेहरू के एक प्रस्ताव का समर्थन कर नेहरू के मन में अपने लिए थोड़ा स्थान बनाया.
इसी लखनऊ अधिवेशन में चंपारण, बिहार से इकतालीस वर्षीय निलहा किसान राज कुमार शुक्ला भी अपने कुछ साथियों के साथ आया हुआ था. नील की खेती करने वाले निलहों की भयानक दुर्दशा की तस्वीरें वह कांग्रेस के पदाधिकारियों को दिखाना चाहता था. पर यहाँ तो बड़े लोग बड़ी बातों पर उलझे हुए थे. चंपारण का ही नाम नहीं सुना हुआ था किसी ने तो उसकी समस्या भला कोई क्या सुनता.
नेताओं की पहली पंक्ति से दुत्कार मिलने के बाद राज कुमार शुक्ला अपनी समझ से दूसरी पंक्ति के गांधी पर नजरें गडाए हुए थे. किसी तरह गांधी के सामने अपनी बात तो रख पाए पर यहाँ भी उन्हें निराशा ही हाथ लगी. गांधी ने मना तो किया पर दुत्कारा नहीं.
लखनऊ से मेला हुड़स गया था. शुक्ला को लग रहा था कि अब कुछ न हो पायेगा. गांधी के मना करने के अंदाज़ में तल्खी न पा कर राज कुमार एक बार और कोशिश करना चाहते थे.
गांधी जी कानपुर पहुँच चुके थे और राज कुमार शुक्ला भी. मौक़ा मिलते ही शुक्ला जी ने गांधी जी को याद दिलाया, राज कुमार शुक्ला, चंपारण वाले .......
( पढ़ते - पढ़ते )

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