छिनु छिफ़ेसबुक पर बेचारी कविता
#मिनीजुगलबंदीनु लौटि लौटि आ जाय, अउतै देहीं मा लपिट्याय,भलकुछु वहिका आंखी काढ़ा
को सखि, सजना?
नाहीं, ' जाड़ा '
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कई कवि लोग बहुत मेहनत करके कविता लिखते हैं। उसका श्रंगार करके उसको आधुनिक और अबूझ बनाते हैं। कविता को डपटते भी हों शायद - "खबरदार अगर हमारे अलावा किसी के पल्ले पड़ीं। "
- अनूप शुक्ल
हम तो कविता को
फेसबुक पर ऐसे ही छोड़ देते हैं
ऐसे मतलब, उचित कपड़े वपड़े पहना कर
फेसबुक पर ऐसे ही छोड़ देते हैं
ऐसे मतलब, उचित कपड़े वपड़े पहना कर
फिर कोई उसकी चोटी को बताता है
अरे! ये तो दोनों चोटियाँ ही बराबर नहीं बनीं
इस से अच्छी तो एक ही चोटी थी
अरे! ये तो दोनों चोटियाँ ही बराबर नहीं बनीं
इस से अच्छी तो एक ही चोटी थी
कोई बिंदी को लेकर चिल्लाने लगता है -
देखो इस बच्ची को, कितना छोटा तो मुँह है इसका
और बिंदी ... पूरा माथा ही घेरे हुए है
देखो इस बच्ची को, कितना छोटा तो मुँह है इसका
और बिंदी ... पूरा माथा ही घेरे हुए है
कुछ को अच्छी लगती है सीधी सादी कविता
तो कुछ मुँह बिचका कर मुँह फेर लेते हैं
तो कुछ मुँह बिचका कर मुँह फेर लेते हैं
कुछ तो उसे देख कर पतली गली से निकल लेते हैं -
' अरे यार यह तो उसकी कविता है
जो मेरी कविता को देख कर मुस्कुराता है
सामने पड़ गई तो मुस्कुराना पड़ेगा '
' अरे यार यह तो उसकी कविता है
जो मेरी कविता को देख कर मुस्कुराता है
सामने पड़ गई तो मुस्कुराना पड़ेगा '
- प्रदीप शुक्ल
को सखि, सजना?
नाहीं, ' जाड़ा '
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