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आम खाने हैं तो बबूल के बीज मत बोइये
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आम का सीज़न शुरू होने वाला है पर हम यहाँ कोई आम बात नहीं कर रहे. बात बहुत ख़ास है, आसिया नौरीन यानी आसिया बीबी के बारे में. वही आसिया बीबी जिसे पाकिस्तान के एक सेशन कोर्ट ने ईश निंदा क़ानून में फांसी की सजा सुनाई थी. यूं तो सुप्रीम कोर्ट ने उसे आठ साल बाद बरी कर दिया था पर ईश के बहुत प्यारे बन्दों ने पाकिस्तान में तीन दिनों तक पूरे पाकिस्तान पर काफी प्यार बरसाया. उनकी मांग थी कि आसिया बीबी की आत्मा को तुरंत मुक्त किया जाए. सरकार के पुनः अपील के वादे पर बमुश्किल वे बन्दे माने. भला हो सुप्रीम कोर्ट का जिसने आसिया बीबी को अभी इस गोले पर विचरण करने के लिए कुछ और समय दिया.
हाँ, तो ख़ास बात यह हुई कि चुप्पे - चुप्पे आसिया बीबी पकिस्तान से रुखसत हो कर कनाडा पहुँच गयीं. आठ साल जेल और गर्दन पर रखी तलवार से उन्हें मुक्ति मिली. आज के अखबारों में यह खबर है कि आसिया बीबी अब कनाडा में अपने परिवार के साथ पहुंचा दी गयीं. उनका परिवार भी गुपचुप तरीके से पिछले बरस कनाडा पहुँच पाने में सफल रहा था. अब इससे ज्यादा और ख़ास क्या होता. हाँ, इससे भी ज्यादा ख़ास बात यह हुई कि आसिया बीबी के हक़ में, और ईश निंदा कानून में बदलाव की वकालत के चलते, पंजाब प्रांत के गवर्नर सलमान तासीर को उनके ही सुरक्षा गार्ड ने सत्ताईस गोलियाँ खर्च कर इस दुनिया से खर्च कर दिया. फिर जब मलिक मुमताज़ हुसैन क़ादरी साहब, गवर्नर साहब को ख़ुदा से मिलवाने के बाद अदालत पहुँचे तो वहाँ मौजूद विशाल जनसमूह ने गुलाब की पंखुरियों से उनका स्वागत किया. ये भी बहुत ख़ास लम्हा था. आम की चाहत में कुछ लोगों ने फिर से बबूल बो दिए.
अब आप कहेंगे कि इसमें आम और बबूल का किस्सा क्यों घुसेड़ा? तो उसके लिए आपको थोड़ा इतिहास में पीछे की तरफ चलना पड़ेगा.
बात सन उन्नीस सौ सत्ताईस की है. हिन्दुस्तान के लाहौर से एक पुस्तक प्रकाशित की गयी ' रँगीला रसूल. ' उसे प्रकाशित करने वाले महाशय का नाम था ' महाशय राजपाल ' हालाँकि महाशय राजपाल ने वह किताब स्वयं नहीं लिखी थी. उसे लिखा था श्री कृष्ण प्रसाद परताब उर्फ़ पं एम ए चम्पती ने, पर उन्होंने कभी उसके लेखक का नाम सार्वजनिक नहीं किया. कहते हैं कि यह किताब हिन्दुओं की तरफ से उस किताब का जवाबी हमला था जिसमे किसी ने सीता के वेश्या होने की बात लिखी थी.
बात का बवाल तो होना ही था, हुआ. महाशय राजपाल गिरिफ्तार हुए जेल गए फिर अंग्रेजी क़ानून के तहत छोड़ दिए गए. गौरतलब बात है कि उस समय ईशनिंदा जैसा कोई क़ानून नहीं बना था. लेकिन उस समय भी ईश के प्यारे बन्दों की कोई कमी नहीं थी. उन्नीस साल के एक नौजवान बढ़ई ' इल्म दीन ' ने एक छुरा लिया और छ: अप्रैल उन्नीस सौ उनतीस को महाशय की आत्मा को रिहा करने उनके ऑफिस पहुँच गये. छुरे ने अपना काम बखूबी किया. कहते हैं कि महाशय ने अपने बचाव में इल्म की कुछ किताबें उस नौजवान की तरफ उछालीं जरूर पर सामने खुद इल्म था सो वे बस फड़फड़ा कर रह गयीं. उनकी आत्मा भी फड़फड़ा कर उड़ गयी.
अदालत में उस नौजवान बढई, जो अब हीरो था, का स्वागत भी गुलाब की पंखुड़ियों से किया गया. बबूल बो दिए गए थे. ख़ास बात यह रही कि स्वागत करने वालों में मरहूम गवर्नर सलमान तासीर के मरहूम अब्बाजान ' दीन मुहम्मद तासीर ' सबसे अगली पंक्ति में थे. वही सलमान तासीर जिन्होंने ईश निंदा क़ानून को थोड़ा नरम बनाने की वकालत की थी और गोलियों से भून दिए गए थे. उसी क़ानून को जिसे उनके अब्बाजान ने कठोर बनाने के लिए दिन रात एक कर दिया था. इतना ही नहीं दीन मुहम्मद तासीर, जो एक बड़े शाइर थे, ने अपने दोस्त अल्लामा इकबाल के साथ मिलकर इल्म दीन को बचाने के लिए एक जोरदार मुहिम चलाई. लोगों से पैसे इकट्ठे किये. उस समय के हिन्दुस्तान में सबसे बड़े वकील मुहम्मद अली जिन्ना की पैरवी के बावजूद इल्म दीन को इस गोले से समय पूर्व रुखसत होना पड़ा. हालांकि जिन्ना साहब को ईश और उसकी निंदा से कुछ लेना देना नहीं था पर इन मामलों में प्रतिनिधित्व के लिए वह हमेशा पाए जाते थे. कुछ लोगों का यह भी मानना है कि आगे चलकर मुल्क को तकसीम करने में यह घटना शुरुआती वजहों में एक थी.
ख़ास बात यह रही कि बीच लाहौर में इल्म दीन की मौत का परवाना उनकी कब्र के साथ प्रदर्शनी के लिए जड़ दिया गया. प्यारे लोग उनकी इबादत के लिए अब भी रोज जाते हैं. इल्म दीन के नाम पर सड़कें और सरकारी भवन अभी भी लाहौर में देखे जा सकते हैं.
दोस्तों, आप देख ही रहे हैं कि पड़ोस में बबूल के जंगल हहरा रहे हैं. आपसे, खासकर राजनीतिक जमात से यह इल्तिज़ा है कि हम लोग आम खाएं और आम ही बोयें ताकि आने वाली हमारी पीढ़ी को भी मीठे आम नसीब हों, बबूल के कांटे नहीं.
- प्रदीप कुमार शुक्ल

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