गांव का एक लड़का ( 19 )
लालकुआं के इसी दड़बे में पांच साल रहते हुए मेरे जीवन में सबसे ज्यादा भावनात्मक उतार चढ़ाव आए, शारीरिक बदलाव भी l हारमोंस अपना लेवल तय कर रहे थे l चेहरे पर दाढ़ी - मूछें आ रही थीं और आँखों में सपने बन बिगड़ रहे थे l पढ़ाई में फेल हुए तो लगा अब सब कुछ ख़त्म l उस अँधेरे कमरे में अकेले में खूब रोया भी और लैम्प की रोशनी में अकेले में खूब मुस्कुराया भी l आत्मविश्वास जमीन पर लोट रहा था, हीन भावना घर करने लगी l पर कभी जान देने का ख़याल नहीं आया, न ही दुनिया से भागने का l फिर किसी तरह अपने को खड़ा किया l एक ऐसा दौर भी आया जब लगा कि मैं पूरी दुनिया को जीत सकता हूँ l आत्मविश्वास ऐसा कि लगा, अब कुछ भी नामुमकिन नहीं है l
परीक्षा देने के तुरंत बाद किसी रोज पिताजी ने कुएँ की जगत पर नहाते वक्त एलान कर दिया कि मेरी तरफ से तुम अब स्वतंत्र हो l आगे की पढ़ाई ( अगर करना चाहो ) तो अपने बूते पर करो l पुराना जुमला दोहराया कि " बारह साल के बच्चे को वैद्य नहीं ढूँढना पड़ता है " तुम तो अब अठारह के होने वाले हो, हमारा खून पीना बंद करो l हालांकि किसी तरह का कोई विवाद नहीं हुआ था उस दिन l पिताजी शायद पढ़ाई के प्रति मेरे रवैये को देखकर काफी निराश हो चुके थे l शायद उनको मुझसे बहुत उम्मीदें रहीं होंगी l अभी इंटर का रिज़ल्ट नहीं निकला था पर रिज़ल्ट के बारे में वह आश्वस्त थे, कि मेरा अब कुछ नहीं हो सकता l मेरा अपना स्वाभिमान मुझे ललकार उठा l अन्दर से खूब क्रोध आया l सोचा अब कभी पैसा घर से नहीं मांगूंगा, जो भी करूंगा अपने बूते पर l
सो, अगली भोर मोमिया में पराठे, कुंदरू की सब्जी, अम्मा का आशीष और आँखों में आँसू लेकर साइकिल लखनऊ की और दौड़ चली l हाईस्कूल थर्ड डिवीज़न पास चिमिरखे से लड़के को कोई क्या नौकरी देता l पर पिताजी की बात दिल को लग गई थी और नौकरी तो करनी ही थी l अगले ढाई महीने यानी रिज़ल्ट निकलने तक वापस गाँव नहीं आया l ये दिन बहुत व्यस्तता में गुजरे और आगे के जीवन के लिए खूब मजबूत कर गए l मेरी समर इंटर्नशिप शुरू हो रही थी l
हमारे बाबा के एक छोटे भाई, जिन्हें हम लोग ' बाबूजी ' कहते थे, पी डब्ल्यू डी ऑफिस में कार्यरत थे l अच्छे पद पर और सहृदय होने के नाते नौकरी के लिए पूरे गाँव से लोग उन्ही के पास जाते l उस जमाने में सिफ़ारिश से सरकारी नौकरियाँ भी मिल जाया करती थीं l बाबूजी का गाँव लगातार आना जाना लगा रहता l शहर में व्यस्तता के बावजूद बाबूजी गाँव को नहीं भूले थे l पूरे परिवार - खानदान को जोड़ कर रखा था उन्होंने l बचपन में मैं उनसे बहुत प्रभावित रहता और उनके जैसा ही बनना चाहता l मैं पढने में थोड़ा तेज माना जाता था तो मुझ पर उनका स्नेह कुछ ज्यादा था l सो, नौकरी के लिए मैं भी बाबूजी के दरबार में हाजिर था l बड़े ध्यान से उन्होंने हमारी बातें सुनीं और फिर थोड़ी देर बाद बोले कि अभी तुम्हारी उम्र नौकरी करने के लायक नहीं है l वैसे तो तुम्हे आज से ही काम मिल सकता है इन पर पानी छिड़कने का l उन्होंने दरवाजे, खिड़कियों पर गरमी से बचने के लिए लगी खस की टट्टियों की तरफ इशारा करते हुए कहा l पर मैं तुम्हे यह काम नहीं करने दूंगा l अभी तुम्हे आगे की पढ़ाई जारी रखनी चाहिए l मैं तुम्हारे पिताजी से बात कर लूंगा l मन में तो था कि बाबूजी, मैं यह काम भी कर लूंगा पर उनके सामने कुछ बोल नहीं पाया l
पर, मुझे तो नौकरी ही करनी थी l अगला पड़ाव था उनके बेटे, हमारे चाचाजी के पास, जो एक मेडिकल कम्पनी में एक्सूक्युटिव थे l मेरे अत्यधिक अनुरोध पर चाचाजी ने अपनी जान पहचान का इस्तेमाल करते हुए मेरे लिए एक अदद नौकरी का प्रबंध कर दिया l
काफी लेबर टाईप का काम था l दवाओं की एक डिस्ट्रीब्यूशन कम्पनी थी, अमीनाबाद में l पगार थी तीन सौ रुपये मासिक l सन्डे के अलावा हर छुट्टी पर दस रुपये कटता l सुबह दस बजे से शाम छः बजे तक कचूमर निकल जाता l काफी मेहनत का काम था l नीचे बेसमेंट से दवा के वजनदार कार्टन कंधे पर उठा कर ऊपर लाना होता, छोटे डब्बों में पैकिंग की जाती फिर रिक्शे पर लादकर अमीनाबाद दवा मार्केट में सप्लाई l मार्किट में मजदूरों से ऊपर दुकानों में एक कार्टन चढ़ाने का पचास पैसे रेट फिक्स था, जिसे बचाने के लिए खुद ही दो चार कार्टन पहुंचा देते और रुपये - दो रुपये बन जाते l असल समस्या थी खाने की l दिन भर हाड़तोड़ काम के बाद खाना कौन बनाए l दोपहर आधे घंटे की छुट्टी में कुछ चाय - बन, समोसे खाकर काम चला लेते थे l रात के खाने के लिए अमीनाबाद में एक शाकाहारी भोजनालय में प्रबंध कर लिया l 175 रुपये में 30 टोकन l एक टोकन पर भरपेट खाना l लेकिन ये सारे टोकन महीने भर में ही इस्तेमाल के लिए वैध थे l
जारी है .....
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