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गांव का एक लड़का ( 15 ) 



पुस्तकालय में ढेर सारी पुस्तकें देख कर याद आया कि मेरे प्राईमरी स्कूल के दिनों में एक शर्मा जी दो बड़े - बड़े झोलों में किताबें भरकर हर बृहस्पतिवार को आया करते थे l तभी मैंने रूसी भाषा से अनुदित कई कहानियों की किताबें पढीं थीं l यह एक चलता - फिरता पुस्तकालय था जो हर बृहस्पतिवार को हमारी पास चलकर आता, जिसका मुझे बेसब्री से इंतज़ार रहता l किताबों वाले शर्मा जी को देखकर मैं पुलकित हो जाता l एक बार तो तेज बुखार में भी मुझे स्कूल इसलिए जाना था कि शर्माजी अपने झोलों के साथ आने वाले थे l
किस्सों कहानियों के शौक के चलते ही मुझे सिनेमा का चस्का लगा जो बाद में लत बन गई l अपने पढ़ने के शौक को पूरा करने मैं अक्सर किताबों की दूकानों पर पाया जाता l साईकिल को कमर से टिकाये तब तक पत्रिकाएं पढता जब तक दुकानदार घुड़क न दे l साप्ताहिक हिन्दुस्तान और धर्मयुग मेरी प्रिय पत्रिकाएँ थीं, जिनके कई अंक मैंने इसी तरह पढ़े l जाहिर है कि ये और इस तरह की कई पत्रिकाएं हमारे कॉलेज में भी आती रही होंगी जिन्हें हम आराम से बैठकर पढ़ सकते थे l मगर अपने दब्बू स्वभाव और दबे कुचले आत्मविश्वास के कारण मैं इससे वंचित रह गया l इसका सबसे ज्यादा मुझे नुकसान यह हुआ कि मेरे कदम लुगदी साहित्य की ओर बढ़ गए l वेदप्रकाश शर्मा, ओम प्रकाश शर्मा, रानू, सुरेन्द्र मोहन पाठक ने मेरे अधिकाँश समय पर कब्जा कर लिया l मनोहर कहानियां, सत्यकथाएँ जैसी पत्रिकाओं ने धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, हंस, सारिका जैसी पत्रिकाओं की जगह ले ली l
इसका मुख्य कारण शायद यह था कि ऐसा साहित्य हमारे आस पास प्रचुर मात्रा में उपलब्ध था जिसे खरीदने की भी जरूरत नहीं थी l हर मोहल्ले में छोटी - छोटी गुमटियां होतीं जिनमे यही किताबें ठसाठस भरी रहतीं l किराया मात्र पच्चीस पैसे प्रतिदिन l हाल यह था कि एक दिन में मैं मोटे - मोटे तीन उपन्यास तक पढ़ डालता l मुझे लगता है कि इन पुस्तकों में जाया किया वही समय यदि मैं बेहतर साहित्य में लगा पाता तो शायद ज्यादा बेहतर इंसान बनता l या फिर ऐसा भी हो सकता है कि इस साहित्य ने ही मुझे ज्यादा बेहतर इंसान बनाया l बहरहाल मैंने खूब पढ़ा और खूब फिल्मे देखीं l दुनिया की समझ हमें शुरुआती दौर में इन्ही से मिली l एक फायदा तो प्रत्यक्ष था, पढने की आदत l जितनी मोटी किताब उतना ही पढने में आनंद l यही आदत आगे की मेडिकल पढ़ाई में बहुत काम आई l आज भी मैं हमेशा भारी भरकम पुस्तक ही चुनता हूँ, पढ़ने के लिए l मैं नहीं बल्कि वह ही मुझे चुनती हैं, मैं आकर्षित होकर उनके मोहपाश में बंध सा जाता हूँ l पर अभी समयाभाव के चलते कम से कम इस तरह की दस किताबें थोड़ी - थोड़ी पढ़कर और पढ़े जाने का इंतेज़ार कर रही हैं l कम पृष्ठों वाली पुस्तकें पढ़ने की इच्छा अन्दर से नहीं जागती l
स्कूल का इंतज़ाम तो हो गया अब बारी थी कमरे की l घर तो वहीं गाँव में छूट गया था यहाँ तो बस कमरे में ही रहना था l लेकिन मेरा कमरा तो ऐसा था कि उसे कमरा कहना, कमरे की बेईज्ज़ती करना ही हुआ l हिम्मत तो नहीं है कि किसी को अपने रहने का स्थान दिखाएँ पर आईये, ले चलते हैं आपको l यह हिम्मत उस समय साथ नहीं दे पाई l जब तक मैं उस दडबेनुमा कमरे में रहा, पूरे पांच सालों तक स्कूल का कोई भी दोस्त उस कमरे पर आने नहीं पाया l
केकेसी से लगभग दो किलोमीटर की दूरी पर एक मुहल्ला है लालकुआं l लालकुआं रिसालदार पार्क के बगल में एक दड़बेनुमा कमरा पिताजी ने काफी पहले से ले रखा था l कभी कभार वह उस कमरे में रुक जाया करते, प्रायः खाली ही रहता l किराया था पंद्रह रुपये प्रति माह l सन उन्नीस सौ बयासी में दस रुपये मजदूर की एक दिन की मजदूरी हुआ करती थी l उस हिसाब से देखा जाय तो किराया निहायत सस्ता था और कई बरसों से उसे बढ़ाया नहीं गया था l बीस कमरों का यह पूरा मकान हाता कहलाता था l हालांकि इसमें आहाते जैसी कोई जगह नहीं थी l आप मुम्बईया फिल्मों में दिखाई जाने वाली चाल की कल्पना कर सकते हैं l पर मैं जानता हूँ कि चाल से इस हाते की तुलना नहीं की जा सकती l अगर केवल कारपेट एरिया की ही बात की जाय तो चाल के एक घर में इस यहाँ के पांच खोखे नुमा कमरे तो निकल ही आयेंगे l हाते में बीचो बीच खडंजा लगी हुई चार फीट की एक गैलरी थी, जिसमे आमने - सामने से आते हुए दो लोग बिना एक दुसरे को छुए हुए मुश्किल से निकल सकते थे l गैलरी में दोनों तरफ पतली नालियां थीं, हर कमरे से पानी निकास के लिए l गैलरी में ही लोगों की साइकिलें खड़ी रहतीं एक आध खटारा लम्ब्रेटा, विजय सुपर भी l
उसी गैलरी में खुलते हुए दोनों तरफ दस - दस कमरे थे l कमरे क्या थे माचिस की डिब्बियां थीं l चार बाई दस का आगे बरामदा उसके पीछे दस बाई बारह का कमरा l यानी कुल एक सौ साठ फीट जगह l इसी एक सौ साठ फीट की जगह में पूरे परिवार के परिवार रहते थे l किसी किसी परिवार ने दो - दो कमरे ले रखे थे l पता नहीं कमरे कब बनाए गए थे और क्यों बनाए गए थे l इंसानों के रहने के लिए तो इनका निर्माण नहीं ही हुआ होगा l पूरे कमरे में कहीं कोई खिड़की नहीं l छत से लगी हुई बरामदे की तरफ ईंटों को हटा कर तीन झिरी बनीं हुई थीं l चार फीट के आसमान से किरणें पहले उस गैलरी में उतरती थीं वहाँ से परावर्तित होकर अनमने ढंग से बरामदे के रास्ते कमरे में प्रवेश करतीं l ढाई फीट का दरवाजा खुला रखने पर भी जून की दोपहर में कमरे के अन्दर की सभी दीवालों को देख पाना असंभव ही था lसबसे आखिर में दोनों तरफ दो कमाऊ शौचालय थे l कमाऊ समझते हैं न आप?, शुष्क शौचालय l वहाँ भी किसी रोशनी का इंतजाम नहीं था l दिन में भी घुप्प अन्धेरा रहता l लोग साथ में दीया, मोमबत्ती या लालटेन साथ ले जाते या फिर अंदाजे से काम चला लेते l
जारी है ......

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