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गांव का एक लड़का ( 17 )

सबसे पहली पिक्चर जो परदे पर देखी ( और कहीं देखने की सुविधा तब थी नहीं ) वह थी, ' पैसे की गुड़िया ' l सिनेमा हाल था चौक में ' प्रकाश ' l तब मैं बहुत छोटा था और चाचा के साथ गया था l फिर अगली पिक्चर के लिए मुझे एक दशक का इंतज़ार करना था l मैंने और मेरे सभी भाई बहनों ने कभी भी कोई भी फिल्म अपने माँ - बाप के साथ सिनेमाहाल में नहीं देखी l हम जब ढाई साल के अपने बेटे को पहली बार फिल्म दिखाने नावेल्टी सिनेमाहाल में ले गए तो उसकी आश्चर्य से आँखें फटी रह गईं l ' पापा, इतना बड़ा टीवी? हम पति - पत्नी अपने बच्चे को खुश देखकर बहुत देर तक खुश होते रहे l मेरे माता - पिता ने इस तरह की किसी खुशी में अपना वक्त और पैसा जाया नहीं किया l
पिताजी किस्सों कहानियों की दुनिया को समय की बर्बादी समझते थे, और फिल्मों को भी l एक बार पिताजी झांसी में नौकरी के सिलसिले में रह रहे थे l अम्मा भी कुछ दिनों के लिए गई हुईं थीं l यह किस्सा मेरी पैदाईश के पहले का है l अम्मा ने पिताजी से पिक्चर देखने की इच्छा जाहिर की l पिताजी अपने काम में मशगूल थे और उन्हें शौक भी नहीं था l बात टलती गई l जब काफी दिन हो गए तो अम्मा ने एक दिन जिद की ( मुझे नहीं लगता कि अम्मा ने पिताजी से जिद की होगी, हाँ दो - एक बार अपनी बात दुहराई जरूर होगी ) l पिताजी ने कहा चलो तुम्हे अभी फिल्म दिखा कर लाते हैं l अम्मा खुशी मन से तुरंत तैयार हो गईं l बारह से तीन फिल्म देखी l फिर वही फिल्म तीन से छः देखी l जब फिर से पिताजी जी उसी फिल्म का टिकट लेकर हाल में बैठ गए तो अम्मा बुक्का फाड़ कर रोने लगीं l वह दिन और आज का दिन, अम्मा ने फिर कभी पिताजी से सिनेमाघर में फिल्म के लिए नहीं कहा l
पिताजी के गाँव के घर में रहती हुए हम लोग टीवी भी नहीं देख पाते थे l जब - तब एंटीना छत से उन्खाड़ कर फेंक देते l हम लोग फिर टांग आते l आजकल अम्मा को टीवी दिखाने के लिए व्हील चेयर से ले जाते हैं और धार्मिक प्रवचन के अलावा फिल्मे और डांस भी अपनी कमेंट्री के साथ दिखाते हैं l अभी कुछ दिनों के लिए उनके टीवी पर धार्मिक चैनलों के अलावा कुछ भी नहीं आ रहा था तो काफी झल्लाए हुए थे l
प्रकाश में मेरी वह पहली और आखिरी पिक्चर ही रही l बाक़ी लखनऊ के सभी छविगृहों में मेरा कई बार का आना जाना लगा रहा l पास में ही अमीनाबाद था जहां गलियों - गलियों से कुछ ही मिनटों में पहुंचा जा सकता था l
आज जब सभी चौबीसों सिनेमाघर या तो बंद हो गए हैं, या फिर बंद होने की कगार पर हैं l तब उनको याद करना तो बनता है। वे हमारे अभिन्न साथी थे।
अमीनाबाद में तीन सिनेमाघर थे l ' जगत ' बीच अमीनाबाद में झंडे वाले पार्क के सामने l उसके बगल में एक गंगा प्रसाद वर्मा लाईब्रेरी थी l कभी जब पहले पहुँच गए तो समय काटने के लिए लाइब्रेरी में बैठते l हालांकि ज्यादातर समय घर से सुई का काँटा मिलाकर ही निकलते l यदि आप एक साथ चार घंटों के लिए कमरे से गायब हुए, तो गए आप कहीं हों यह मान लिया जाता कि आप फिल्म देखकर आये हैं l
जगत के पिछली वाली सड़क पर था ' मेहरा ' सिनेमा l कहते हैं कि इसी सिनेमा घर में शुरुआती दिनों में ( तब यहाँ लाईव परफोर्मेंस भी हुआ करती थी ) नौशाद साब हारमोनियम बजाया करते थे l
तीसरा सिनेमा घर था ' नाज़ ' l प्रकाश कुल्फी वाले चौराहे से जब आप कैसरबाग बस अड्डे की तरफ चलते हैं तो करीब पचास कदम पर बाएं हाथ पर नाज़ हुआ करता l जिस पर कम से कम हमें तो नाज़ नहीं था l यह अकेला पिक्चर हाल था जिसमे कैदियों की तरह हाथ पर ठप्पा लगवाना पड़ता l
अमीनाबाद से जैसे ही आप कैसरबाग़ चौराहे प् पहुँचते हैं तो ठीक चौराहे पर दाहिनी तरफ है ' आनंद ' l आनंद में बस एक खराबी थी कि ठीक फिल्म शुरू होने से पहले ही गेट खुलता l तब तक आपको चौराहे पर ही खडा रहना पड़ता l जहां आप किसी पैचित के द्वारा अपराध करते हुए देखे जा सकते थे। चौराहे से कुछ ही क़दमों की दूरी पर है ऐतिहासिक अमीरुद्दौला पब्लिक लाईब्रेरी l वहाँ का मेरे पास सदस्यता कार्ड था और गाहे बगाहे मैं वहाँ जाया करता l मुद्राराक्षस को पहली बार मैंने वहीं पढ़ा था l
आनंद से जब आप बर्लिंगटन चौराहे की और मुड़ते हैं तो दाहिनी तरफ गुड बेकरी के बाद बाईं तरफ लो आ गया ' लिबर्टी ' l हमारे जमाने में लिबर्टी एक बढ़िया सिनेमाघर था l मुझे इसलिए भी पसंद था कि उसके ठीक सामने वाली गली में घुसते ही कुछ संकरी गलियों के जाल से निकलते हुए तेजी - तेजी बारह मिनटों में मैं अपने कमरे पा आ जाता था l घुसते ही बाईं तरफ कालीबाड़ी फिर घसियारी मंडी, मॉडल हाउस, रत्ती खस्ते वाला चौराहा फिर हीवेट रोड पार करते हुए सुंदरबाग में घुस जाईए डॉ दीक्षित के सामने से मकबूल गंज और आ गए रिसालदार पार्क।
जारी है .....

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