गांव का एक लड़का ( 14 )
अपने प्राइमरी स्कूल का टॉपर लड़का यहाँ बिलकुल बैक बेंचर हो गया था l न तो पढाई होती थी, न ही कोई कुछ पूछने वाला था स्कूल में, न कुछ समझ आता था l कोर्स की किताबों से अजीब सी घबराहट होने लगी l
उसी समय मेरे खानदान में किसी वृद्ध की मृत्यु होने के कारण मैंने सर मुडाया हुआ था l क्लास में देहात से आया हुआ एक घुटमुंडा चिमिर्खी सा लड़का जिसको अंग्रेजी तो छोड़ो खड़ी हिंदी तक बोलने में दिक्कत थी l ऐसे में किसी पढ़ाकू लड़के से मेरी दोस्ती नामुमकिन ही थी l अपने शराफ़त के कीटाणुओं के चलते किसी आवारा लड़के से मैं दोस्ती कर नहीं सकता था l सो, ग्यारहवीं में में मेरा कोई दोस्त बन नहीं पाया l बारहवीं में एक दुबले पतले लड़के सुधीर श्रीवास्तव से मेरी थोड़ी बहुत दोस्ती हुई जिसने बताया कि शुरू में मैं तुमको बिलकुल उजड्ड देहाती ही समझता था l मैंने उससे कहा कि तुम बिलकुल ठीक थे, बस उजड्ड थोड़ा कम हूँ मैं, पर देहाती तुम्हारी सोच से ज्यादा l
एक तो पहली बार परिवार से दूर अकेले अनजान शहर में, ऊपर से नया स्कूल, मैं बस डर सा गया था इस दुनिया से l यह डर फिर बहुत वर्षों तक मेरे साथ बना रहा। स्कूल में तो दुबका ही रहता जहां रहता था वहाँ भी जान बचाए अँधेरे में पड़ा रहता l गाँव घर की खूब याद आती l सामने से आ रही लड़की को देखकर दूसरी पट्टी पर चला जाता l शहर में कदम रखते ही मेरे आत्मविश्वास की धज्जियां उड़ चुकी थीं l यह तो अच्छी बात थी कि उन दिनों सह शिक्षा का ज़माना नहीं था वरना मैं शायद कॉलेज छोड़कर गाँव वापस आ गया होता l
सच पूछा जाय तो मुझे अपने ग्यारहवीं - बारहवीं स्कूल के दिन बिलकुल याद नहीं l बस इतना याद है कि स्कूल जाने में एक घबराहट सी होती थी l हाईस्कूल के बाद किसी तरह मैथ्स से पीछा छूटा तो उसकी जगह फिजिक्स ने ले ली l फिजिक्स के मेरे एक टीचर शुक्ला जी हुआ करते थे l मुझे लगता है कि वह गलती से फिजिक्स के अध्यापक बन बैठे थे l या यूँ कहिए कि अध्यापक ही होना उनको सूट नहीं करता था l न उन्होंने कभी पढ़ाया न हमने कभी पढने की जहमत उठाई l न्यूमेरिकल देख कर तो मेरी घिग्घी बंध जाती l उनसे गज़ब तो हमारे हिन्दी के शिक्षक हुआ करते थे l पूरे दो सालों में उन्होंने शायद कुल दस - बारह क्लासेस ली होंगी l बारहवीं की बोर्ड परीक्षा में मैंने आख़िरी के आधे पेज पर यही गाथा लिखी और पास करने का आग्रह किया l निरीक्षक महोदय ने पता नहीं पढ़ा या नहीं पर मैं हिन्दी में भी बाकायदा पास था l
बायोलोजी मुझे पसंद थी और उसके टीचर भी l ऊँचे कद और तीखी नाक वाले आर एस पांडेय जी एक अकेले टीचर हैं जिनकी शक्ल और पूरा नाम मुझे आज तक याद है l पाण्डेय जी बढ़िया पढ़ाते थे और पढ़ाते भी थे l मैं उनकी कोचिंग में भी कुछ दिनों पढने गया, पर वहाँ भी बायो के अलावा कुछ समझ नहीं आता l लेकिन ऐसा नहीं था कि मैं पांडेय जी का प्रिय शिष्य था l वह तो शायद ही मेरा नाम तक जानते हों l दरअसल मैं शुरू से ही बहुत मुखर कभी नहीं रहा लेकिन यहाँ आकर कुछ ज्यादा ही अंतर्मुखी हो गया था l
अंग्रेजी के एक टीचर बिलकुल नए - नए आये थे l कोई त्रिपाठी जी थे l पढ़ाते कम हड़काते ज्यादा थे l डरते - डरते कभी कुछ पूछा भी तो बताने की जगह खुद ही सवाल दागते और चिल्लाकर भगा देते l हम भी अपनी जान बचाए भाग लेते l कालान्तर में उनसे बदला लेने का एक मौका मुझे भी बाद में मिला l
मेडिकल कॉलेज में मेरी इंटर्नशिप चल रही थी और मेरी पोस्टिंग आँख वाले महकमे में लगी थी l मैं स्नेलेन चार्ट पर दृश्य तीक्ष्णता ( विजुअल अक्यूटी ) चेक कर रहा था l तभी लाइन में खड़े हुए मुझे अपने अंग्रेजी वाले गुरूजी दिखाई पड़े l वह बेचारे हमे क्या पहचानते पर मैं उन्हें देखते ही पहचान गया l अचानक मुझे उनका व्यवहार याद आ गया और अपनी अंग्रेजी की दुर्दशा भी l मैंने उन्हें अनदेखा किया और लाइन से अपने पास आने दिया l सामने बैठते ही मैंने उनसे कड़क आवाज़ में कहा, पढ़िए l वह बेचारे एक आँख बंद कर अटक - अटक कर पढने लगे l मैंने उन्हें वहीं रोक दिया और दया दिखाते हुए कहा, " अरे! आपको अंग्रेजी नहीं आती है तो आपको पहले बताना था न, मैं इसे घुमा देता हूँ l" और उनका उत्तर सुने बगैर चार्ट को घुमा दिया जहां अनपढ़ लोगों के लिए केवल चित्र प्रदर्शित थे l मैंने चेहरे पर ऊब मलकर उबासी लेते हुए कहा, हाँ बाबा, अब बताइये किधर मुंह खुला है? उन्होंने बहुत धीरे से कहा, अरे डॉ साब मैं अंग्रेजी का टीचर हूँ, केकेसी में l अब तक मेरा बदला पूरा हो चुका था l मैंने कुर्सी से उठकर उनके पैर छुए और क्षमा मांगी कि सर मैं आपको पहचान नहीं पाया, मैं भी आपका शिष्य रह चुका हूँ l फिर जल्दी से मैंने उनके सारे काम कराये और उन्हें नीचे तक छोड़ने गया, फिर से पैर छुए और आशीर्वाद लिया l इस तरह तुरंत गुरु अवमानना का प्रायश्चित भी कर लिया l
केकेसी कॉलेज में एक छोटी सी समृद्ध लाइब्रेरी हुआ करती, जिसके बारे में मुझे तब पता चला जब मुझे वहाँ से नो ड्यूज साईन कराना पड़ा l इसके पिछले स्कूलों में मैंने एकाध बार पुस्तकालय पर निबंध तो लिखा था, पर कभी पुस्तकालय देखा नहीं था l कोर्स से इतर मुझे पढने का शौक बचपन से ही था l यह शौक मेरे दादाजी से स्थानांतरित हुआ था l दादाजी केवल चार जमात पास थे पर हिंदी और उर्दू अच्छी तरह से पढ़ और समझ लेते थे l हमारी हिन्दी और इतिहास की किताबें हमसे पहले दादाजी पढ़ते थे l बाजार से सामान भर कर जो लिफ़ाफ़े आते उनको करीने से खोलकर दादाजी चारपाई पर लेटे पढ़ रहे होते l हम भी कई बार समोसे, मूंगफली खाकर उसके कागज़ पर लिखी दुनिया में खो जाते l
जारी है ......
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