Skip to main content

गांव का एक लड़का ( 16 )



लालकुएँ के इसी कुएं में मैं 1982 से 1987 तक रहा l तब शहर में मेरा बस यही ठिकाना था जो मुझे पसंद भी था l वहाँ मैं अपने जैसे लोगों के बीच रहते हुए थोड़ा बेहतर महसूस करता l यहीं पर रहकर जवान होते हुए मैं धीरे - धीरे शहरी जीवन से अभ्यस्त हो रहा था और मुझमे खोया हुआ आत्मविश्वास वापस आ रहा था l मेरे लिए मेरा कमरा बिलकुल मुफीद जगह पर था l कुछ दूरी पर अमीनाबाद, थोड़ी दूर पर हजरतगंज l स्कूल पास में, सिनेमाहाल भी इतनी दूरी पर थे कि रात में आख़िरी शो देख कर पैदल ही घर आ जाते l लालबाग के जयभारत से भी पैदल ही गलियों - गलियों बस कुछ ही मिनटों में कमरे पर l
कमरे में बिजली का कनेक्शन नहीं था l लैंप की रोशनी में पढ़ाई होती l गाँव में भी लाईट नहीं थी तो अभ्यस्त था, किसी प्रकार की असुविधा महसूस नहीं होती l गर्मियों में छत पर पानी डाल कर बिस्तर लगाते और देर सुबह तक सोते, जब तक धूप उठा न दे l परेशानी बरसात के दिनों में होती l गाँव में तो बारिश की रातों में सोने का आनंद ही कुछ और था l छप्पर के नीचे खटिया पर चादर तान कर सो जाते l तेज बारिश में पुरवाई के साथ बौछारें आतीं तो दीवार की तरफ बिस्तर समेट लेते और कथरी ओढ़ कर सोते रहते l पर यहाँ तो बिलकुल नरक था l थोड़ी बौछारें पड़ीं तो बिस्तर समेट कर नीचे l बारिश बंद हुई तो उमस बढ़ी, फिर छत पर l पूरी रात यही करते रहते l
सामने दो कमरों में बुआजी का परिवार रहता था l सो शुरुआत में और बीच बीच में भी, खाना उन्ही के यहाँ होता था l कई बार खाना खुद बनाते भी थे l स्टोव पर ज्यादातर दाल रोटी, कभी - कभी सब्जी रोटी l सीखने के लिए काफी मस्सक्कत की फिर सीख गए गोल गोल रोटी बेलना l एक बार बुआजी से किसी बात पर नाराज थे और घर में हल्दी नहीं थी l पास में इतने पैसे भी नहीं थे कि हल्दी ख़रीद सकूं, तो बिना हल्दी की केवल नमक डाल कर अरहर की दाल बनी और भूखे पेट अच्छी भी लगी l शुरू में साल भर तक बड़े भैया भी साथ ही रहते थे l उम्र में ढाई तीन साल का अंतर है और गाँव में साथ - साथ खेलते और लड़ते रहे थे l खाना बनाने को लेकर काफी झगडा होता कभी मारपीट की नौबत भी आ जाती l मारपीट में मैं ही मारा जाता और मैं ही पीटा जाता l फिर वह नौकरी के सिलसिले में कानपुर चले गए और मैं अकेला ही रहने लगा l
सोमवार की सुबह गाँव से आते तो एक दो दिन तो घर से लाए पराठे ही चल जाते ( अम्मा के बनाए बहुत पतली परतों वाले पराठे और कुंदरू की सब्जी, अहा! बस मुहं में पानी आ गया ) फिर एकाध दिन खुद बनाते, एकाध दिन बुआजी के यहाँ खाते या खाने के लिए किसी और रिश्तेदार के यहाँ स्पॉट लगता l शनिवार आ जाता और वापस गाँव l दस रुपये में सप्ताह भर आराम से खींचा जा सकता था l दो चार रुपये अम्मा से और ऐंठ लिया तो बल्ले - बल्ले l इसी में पिक्चर भी देखनी होती l
बटुआ तो था नहीं, उसकी जरूरत भी नहीं थी l पैंट की दोनों जेबों में उपस्थित एक आध नोट और दो चार चिल्लर हरदम दिमाग पर दस्तक देते रहते l एक - एक सिक्का गिना हुआ l बाबा कहा करते कि मेरे पास जब भी पैसे आ जाते हैं कहीं से, तो मेरा सिर दर्द करने लगता है l इसलिए उन्हें खर्च करना जरूरी हो जाता है l मैं सोचता कि हे भगवान्, मेरे पास कब पैसे आयेंगे कि मेरा भी सिर दर्द करे कि उन्हें खर्च करने के लिए l
एक बार ऐसे ही किसी शनिवार को साइकिल खराब थी और घर टेम्पो से जाना था l किराया था डेढ़ रुपये l ट्रक वाले एक रुपये भी ले लेते l पैसा खर्च होते होते सब खर्च हो गया l आखिरी अठन्नी से नगर बस द्वारा नगर की सीमा तक तो आ गए अब आगे कैसे जाएँ l थोड़ी दूर पैदल चले फिर एक साइकिल वाले से विनती की l उसने कहा ना भैया l हमने ऑफर दिया कि मैं चला लूंगा तो वह झट से तैयार हो गया l वह हट्टा - कट्टा मजदूर था और मैं सुखट्टा लाल, पर पट्ठे को बिलकुल तरस नहीं आया और मैं किसी तरह साइकिल खींचता हुआ बंथरा तक पहुँच पाया l
सिनेमा का तो आलम यह था कि उन दिनों पूरे लखनऊ में कुल चौबीस सिनेमाघर हुआ करते थे l किस में कौन सी पिक्चर चल रही है और अगले बृहस्पतिवार को कौन सी लगने वाली है यह मुंहजबानी पता रहता था l उन दिनों फ़िल्में गुरुवार को ही चेंज होती थीं l पुरानी पिक्चरों का फर्स्ट क्लास का टिकट डेढ़ से दो रुपये में आता था l नई रिलीज़ हुई फिल्मे बहुत कम देखते थे, उनके टिकट कुछ महंगे हुआ करते l हमारे समय में पिक्चर देखना एक अपराध की श्रेणी में आता था l बुआजी की निगरानी रहती और इसकी खबर पिताजी को पहुंचाई जा सकती थी l इसलिए बहुत सचेत रहना पड़ता l अमीनाबाद में एक था नाज सिनेमा घर l वहाँ ब्लैकमेलिंग रोकने के लिए हाथ पर ठप्पा लगाते थे जो आसानी से नहीं छूटता l उसके चक्कर में हमेशा पूरी बांह की शर्ट पहन कर जाते वहाँ पिच्क्चार देखने l पिक्चर में और वैसे भी, साथी था मेरी बुआ का लड़का l हम समवयस्क थे और पक्के दोस्त भी l हम साथ - साथ ही गलियों के चक्कर लगाते, एक साथ खाना खाते, छत पर एक साथ ही सोया करते, अक्सर रजाई लेकर जाड़ों में भी l रात में कभी पिक्चर जाते तो तकिया लगा कर चादर ओढ़ा देते l ऐसे भागने में एक छोटी सी दीवार लांघनी होती, जिसके ऊपर कांच के टुकड़े लगे थे l एक बार मेरा हाथ भी उससे कट गया था, जिसका निशान हथेली पर अब भी मौजूद है l
जारी है ......

Comments

Popular posts from this blog

चिल्ड्रेन्स हॉस्पिटल : कुछ नोट्स ( 5 ) रविवार का दिन ज़रा देर से शुरू होकर देर तक चलता है हमारे यहाँ. भीड़ भाड़ कुछ ज्यादा ही रहती है, और दिनों की अपेक्षा. इसका एक कारण डॉ साहब का शाम को न मिलना भी है. लोगों का अवकाश भी रहता है अपने दफ्तरों से. सो, आज रविवार है और दिव्यांश के पापा इसी भीड़ में रिसेप्शन पर भिड़े पड़े हैं. " हमको दिखाना नहीं है, बस बात करनी है डॉ से. लूट मचा रखी है. ये देखो सब टीके लगवाए हैं हमने फिर मेरे बच्चे को टाइफाइड कैसे हो गया? सारे डाक्टरों का ये लूटने का जरिया है. अरे भाई जब टीके काम ही नहीं करते हैं तो लगाते क्यों हो? पैसे कमाने के लिए? " हंगामा बढ़ता देख डॉ साहब ने पापा को चैंबर में बुला लिया है. आपको हमसे बात करनी थी? हाँ तो ठीक है, पहले आप बैठ जाइए डॉ ने स्टूल पर बैठे हुए बच्चे को पर्चा लिख कर विदा किया फिर दिव्यांश के पापा की तरफ मुखातिब हुए जी, बताइए? बताना क्या, आपने सारे वैक्सीन हमारे बच्चे को लगवाए. आपने जो जो कहे हमने सब लगवाए फिर भी हमारा बच्चा जब तब बीमार रहता है. देखिए फिर उसको टाइफाइड हो गया है. आपने पिछले साल ही इसका इंजेक्
मैं तो बचपन हूँ साथी मैं तो बचपन हूँ साथी मुझको दुख से क्या लेना दूब हमारी राहों में खुद मखमल सी बिछ जाती नीले पंखों वाली तितली मुझको पास बुलाती रोज रात में साथ साथ चलती तारों की सेना बाग़ बगीचे सुबह दोपहर मेरी राह निहारें रात मुझे थपकी देती हैं कमरे की दीवारें जेबें मुझे खिलाती रहतीं दिन भर चना चबेना बारिश की बूंदें मुझको खिड़की के पार बुलाएं मुझे उड़ाकर अगले पल बाहर ले चली हवाएं चाह रहा मन दुनिया में चटकीले रँग भर देना - प्रदीप शुक्ल
# किस्सा_किस्सा_लोककथाएं #1 शेषनाग पर लेटे हुए विष्णु भगवान लक्ष्मी जी से बतिया रहे थे। दीवाली का भोर था सो लक्ष्मी जी काफी थकी हुई लग रही थीं, परंतु अंदर से प्रसन्न भी। लक्ष्मी जी ने मुस्कुरा कर कहा, ' हे देव, कल देखा आपने, नीचे मृत्युलोक में कितना लोग मुझे चाहते हैं। विष्णु भगवान कुछ अनमने से दिखे। बोले, देखिये लक्ष्मी जी, दीवाली के दिन तो बात ठीक है, लोग आपकी पूजा करते हैं, आपका स्वागत करते हैं, बाकी के दिनों में भगवान, भगवान होता है। हो सकता है कि कुछ दरिद्र और  अशिक्षित लोग आप की आकांक्षा रखते हो आपका स्वागत करते हों और आप को बड़ा मानते हो, परंतु शिक्षित वर्ग और योग्य लोग भगवान को लक्ष्मी से ऊपर रखते हैं। लक्ष्मी जी ने मुस्कुरा कर कहा नाथ, ऐसा नहीं है। बाकी दिनों में भी मृत्यलोक के प्राणी मुझे ही ज्यादा पसंद करते हैं। और पढ़े-लिखे योग्य लोगों की तो आप बात ही मत करिए। बात विष्णु भगवान को खल गई। बोले, " प्रिये, आइए चलते हैं इस बात की परीक्षा ले ली जाए। हालांकि लक्ष्मी जी दीवाली में थक कर चूर हो चुकी थीं पर यह मौका हाथ से जाने नहीं देना चाहतीं थीं। देवलोक से भूलोक