Skip to main content

गांव का एक लड़का ( 12 )



कक्षा आठ पास करने के बाद मेरा मन पढाई से कुछ उचट सा गया l पढ़ाई से, मतलब कोर्स की बोरिंग किताबों से l अगले पांच सालों तक ऐसा नहीं कि मैंने कुछ सीखा नहीं पर इस सीखने में स्कूल और कॉलेज की किताबों और मास्साब लोगों का योगदान न के बराबर ही रहा l अगले दो साल तो गाँव में ही गाय - भैंस चराते, जरूरी बदमाशियां सीखते, करते गुजरे l फिर अगले तीन साल शहर के धक्के खाते, सिनेमाघरों के चक्कर काटते, कुछ नई बदमाशियों को आजमाते हुए काटे l वह सब किया जो उस उम्र के लड़के करते हैं बस एक ही काम नहीं किया, वह थी विधिवत पढ़ाई l जिसका खामियाजा आज तक भुगत रहा हूँ l कभी कभी लगता है कि दिमाग को किसी डब्बे में भगवान् बंद कर के पांच वर्षों तक भूला रहा l फिर अचानक उसे याद आया और मष्तिष्क को कुछ हवा पानी नसीब हुआ l
नौवीं और दसवीं क्लास में बायोलॉजी पढ़ाते थे सैयद सरबत हुसैन ( अगर मैं नाम सही लिख पा रहा हूँ ) सर l हुसैन साब खूब लम्बे गोरे चिट्टे आदमी थे, लखनऊ से कभी - कभी आते थे और बायोलॉजी को ब्यांलोजी कहते l जब कभी वह कॉलेज आते तो ठीक - ठाक पढ़ाते भी थे l प्रैक्टिकल भी करवाते l प्याज की झिल्ली से दीवार में चुनी ईंटों जैसी कोशिकाएं सबसे पहले उन्होंने ही दिखाईं l अपनी लम्बी - लम्बी उँगलियों से जब वह मेढक का डिसेक्शन करते तो कलाकार जैसे लगते l
फिजिक्स के टीचर थे नाटे कद के बाबूराम नामदेव सर l नामदेव सर पढ़े लिखे योग्य आदमी थे पर शायद वह शिक्षक का अपना करियर छोड़कर कहीं और जाना चाहते थे सो इतनी शिद्दत से नहीं पढ़ाते थे कि पढने वाला उनका मुरीद हो जाए l हालांकि वह किराए का कमरा लेकर वहीं रहते थे और रोज स्कूल आते थे l अपने घर में ट्यूशन भी पढ़ाते थे सर लेकिन वहाँ भी वह पूरे मन से मौजूद नहीं रहते l उन दिनों शायद वह खुद ही किसी परीक्षा में व्यस्त रहा करते थे l कालान्तर में वह किसी और सरकारी नौकरी में चुन लिए और उन्होंने पठन - पाठन कार्य से मुक्ति पाई l
-------------
1982 की मई या जून की किसी सुबह खबर आई कि हाईस्कूल का रिज़ल्ट निकला है, देख लिया जाय l जल्दी से बन्दर छाप काला दन्त मंजन थूक कर पैंट पहनी और भाग लिए 6 किलोमीटर दूर कस्बे नुमा गाँव या गाँव नुमा कस्बे में, जहाँ पेपर मिलने की उम्मीद थी. स्कूल भी वहीं पर था.
वहाँ पहुँचते ही एक सहपाठी मिले जो पढने में मेरी तरह ही ठीक ठाक थे, कहा कि सब गुड़ गोबर हो गया यार, क्लास में किसी का नंबर अखबार में नहीं छपा है l मैंने एक बार मिमियाती आवाज़ में पूछा - सच कह रहे हो ? लेकिन उसने उत्तर देने के बजाय आँखों में आँसू भर लिए. अब शक की कोई गुंजाईश कहाँ बची थी ?
घर में मेरा थोबड़ा देख कर किसी को रिज़ल्ट पूछने की ज़रुरत महसूस नहीं हुई l सभी अपने कामों में लगे थे किसी को दिलासा देने की तो बात ही छोड़िये गरियाने तक की फुरसत नहीं थी, और न ही यह आवश्यकता महसूस हुई होगी. अलबत्ता माँ ने ज़रूर सर पर हाथ फेरते हुए कहा " गिरते हैं शहसवार ही मैदाने जंग में " इससे आगे के शब्द उनको याद नहीं थे l मुझे शब्द तो सुनाई नहीं पड़े पर माँ के हाथ का स्पर्श डूबते हुए को एम डी आर एस की टीम का सहारा मालूम हुआ l बाबा ने थोड़ा अविश्वास से मुझे देखते हुए पूछा, क्या वाकई तुम फेल हो गए हो? मैंने सर हिलाया, और वहाँ से भाग गया l उस रात मैं बगैर खाना खाये, मूंज की नंगी चारपाई पर सोता रहा और रोता रहा l
लेकिन कहानी तो अभी बाकी है मेरे दोस्त - अगले दिन मन नहीं माना तो फिर भागे सुबह सुबह साइकिल ले कर l अब थोड़ी हिम्मत आ चुकी थी कि अखबार में नंबर खुद भी ढूंढ लें एक बार l तो साहब खोजने पर मिल गया अपना नंबर, बाकायदा चमक रहा था ( T ) के साथ l
हुर्रे !!!!!!! मैं पास हो गया था और मैं ही नहीं, पचपन जनों की भरी हुई क्लास में पूरे सात लोग पास हुए थे - सभी गाँधी डिवीज़न l
गाँव में मेरी पढ़ाई का समय पूरा हो चुका था. अब शहर मेरी राह देख रहा था, और जहाँ बिल्कुल अलग दुनिया मेरा इंतज़ार कर रही थी l
जारी है ......

Comments

Popular posts from this blog

चिल्ड्रेन्स हॉस्पिटल : कुछ नोट्स ( 5 ) रविवार का दिन ज़रा देर से शुरू होकर देर तक चलता है हमारे यहाँ. भीड़ भाड़ कुछ ज्यादा ही रहती है, और दिनों की अपेक्षा. इसका एक कारण डॉ साहब का शाम को न मिलना भी है. लोगों का अवकाश भी रहता है अपने दफ्तरों से. सो, आज रविवार है और दिव्यांश के पापा इसी भीड़ में रिसेप्शन पर भिड़े पड़े हैं. " हमको दिखाना नहीं है, बस बात करनी है डॉ से. लूट मचा रखी है. ये देखो सब टीके लगवाए हैं हमने फिर मेरे बच्चे को टाइफाइड कैसे हो गया? सारे डाक्टरों का ये लूटने का जरिया है. अरे भाई जब टीके काम ही नहीं करते हैं तो लगाते क्यों हो? पैसे कमाने के लिए? " हंगामा बढ़ता देख डॉ साहब ने पापा को चैंबर में बुला लिया है. आपको हमसे बात करनी थी? हाँ तो ठीक है, पहले आप बैठ जाइए डॉ ने स्टूल पर बैठे हुए बच्चे को पर्चा लिख कर विदा किया फिर दिव्यांश के पापा की तरफ मुखातिब हुए जी, बताइए? बताना क्या, आपने सारे वैक्सीन हमारे बच्चे को लगवाए. आपने जो जो कहे हमने सब लगवाए फिर भी हमारा बच्चा जब तब बीमार रहता है. देखिए फिर उसको टाइफाइड हो गया है. आपने पिछले साल ही इसका इंजेक्
मैं तो बचपन हूँ साथी मैं तो बचपन हूँ साथी मुझको दुख से क्या लेना दूब हमारी राहों में खुद मखमल सी बिछ जाती नीले पंखों वाली तितली मुझको पास बुलाती रोज रात में साथ साथ चलती तारों की सेना बाग़ बगीचे सुबह दोपहर मेरी राह निहारें रात मुझे थपकी देती हैं कमरे की दीवारें जेबें मुझे खिलाती रहतीं दिन भर चना चबेना बारिश की बूंदें मुझको खिड़की के पार बुलाएं मुझे उड़ाकर अगले पल बाहर ले चली हवाएं चाह रहा मन दुनिया में चटकीले रँग भर देना - प्रदीप शुक्ल
# किस्सा_किस्सा_लोककथाएं #1 शेषनाग पर लेटे हुए विष्णु भगवान लक्ष्मी जी से बतिया रहे थे। दीवाली का भोर था सो लक्ष्मी जी काफी थकी हुई लग रही थीं, परंतु अंदर से प्रसन्न भी। लक्ष्मी जी ने मुस्कुरा कर कहा, ' हे देव, कल देखा आपने, नीचे मृत्युलोक में कितना लोग मुझे चाहते हैं। विष्णु भगवान कुछ अनमने से दिखे। बोले, देखिये लक्ष्मी जी, दीवाली के दिन तो बात ठीक है, लोग आपकी पूजा करते हैं, आपका स्वागत करते हैं, बाकी के दिनों में भगवान, भगवान होता है। हो सकता है कि कुछ दरिद्र और  अशिक्षित लोग आप की आकांक्षा रखते हो आपका स्वागत करते हों और आप को बड़ा मानते हो, परंतु शिक्षित वर्ग और योग्य लोग भगवान को लक्ष्मी से ऊपर रखते हैं। लक्ष्मी जी ने मुस्कुरा कर कहा नाथ, ऐसा नहीं है। बाकी दिनों में भी मृत्यलोक के प्राणी मुझे ही ज्यादा पसंद करते हैं। और पढ़े-लिखे योग्य लोगों की तो आप बात ही मत करिए। बात विष्णु भगवान को खल गई। बोले, " प्रिये, आइए चलते हैं इस बात की परीक्षा ले ली जाए। हालांकि लक्ष्मी जी दीवाली में थक कर चूर हो चुकी थीं पर यह मौका हाथ से जाने नहीं देना चाहतीं थीं। देवलोक से भूलोक