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नवगीत महोत्सव से लौटते हुए
आयोजक को
हमने जी भर
खुले आम गरियाया
और इस तरह फिर हम सबने
अपना धर्म निभाया
पहले तो
नखरे पेले,
हम कहीं नहीं अब जाते
ट्रेन छूटती देखी तो फिर
बोला, हम हैं आते
ज्ञान गठरिया
अहंकार के
कंधों पर उठवाया
बना माथ पर व्यस्त लकीरें
हमने उन्हे दिखाया
सुबह-शाम
बस हम भकोस कर
लड्डू पूरी खाते
मगर भला तारीफ़ों के
दो शब्द कहाँ कह पाते
मीठी खीर
फेंक हमने
उसको कड़वा बतलाया
जहर बुझे तीरों को हमने
अंधाधुंध चलाया
अपनी ढपली
पर हम हरदम
अपना राग बजाते
सदा दूसरे की सरगम पर
अपने कान खुजाते
और किसी की
नहीं सुनी
बस अपना गाल बजाया
सबको बौना खुद को हमने
सात हांथ बतलाया
- प्रदीप कुमार शुक्ल

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