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गांव का एक लड़का ( 28 )



फार्मेसी में डिप्लोमा कोर्स उन दिनों केवल सरकारी मेडिकल कॉलेजों और सरकारी पॉलिटेक्निक्स में ही होता था l डेढ़ साल के कोर्स के बाद नौकरी आपके हाथ में l क्लास थ्री की सरकारी नौकरी, सरकारी अस्पताल में फार्मासिस्ट l उस समय तक वहाँ पर कोई प्रतीक्षा सूची नहीं थी l पता चला पिछले साल पास हुए सारे बच्चों की नौकरियाँ लग चुकी हैं l केजीएमसी, लखनऊ में फार्मेसी का कोई कोर्स नहीं था उन दिनों l इसलिए सबसे नजदीक जीएसवीएम मेडिकल कॉलेज, कानपुर मुझे आबंटित किया गया l
सरकारी नौकरी का आकर्षण तब भी उतना ही था, जितना आज है l गाँव घर में डॉ के नाम से तो जाने ही जाते l गाँव के सरकारी अस्पताल में काम करने वाला वार्ड बॉय भी डॉ ही होता है और बड़े मजे से छोटे मोटे ऑपरेशन निपटाता रहता है l फार्मासिस्ट को तो खैर अधिकार ही होता है दवा - इंजेक्शन का l
अभी कुछ समय पहले मैं विधि विज्ञान प्रयोगशाला, लखनऊ से प्रयोगशाला परिचर की पोस्ट के लिए धक्के खाकर लौट आया था l आप अंदाजा लगाइए जिस आदमी को चपरासी की नौकरी नहीं नसीब हो उसे क्लास थ्री की सरकारी नौकरी हाथ लग जाए तो उसे कैसा लग रहा होगा l मैं भी कुछ समय के लिए हवा में था l नौकरी पाने की तो ज्यादा खुशी नहीं थी पर किसी प्रतियोगी परीक्षा में सम्मानजनक रैंक से चयनित होने के आनंद में डूब उतरा रहा था l घर परिवार से लोगों की बधाईयाँ मिल रहीं थीं l पिताजी का व्योहार भी मेरे प्रति कुछ सहृदय हो गया था l माँ तो खैर खुश थी ही l
पहले तो कुछ दिनों तक मारे शान के लोगों के सामने यही दोहराता कि मैं सोच रहा हूँ कि इसे ज्वाइन ही न करूँ. लोग फिर देर तक समझाते, अरे! सरकारी नौकरी कैसे छोड़ सकते हो तुम? फिर मैं कंधे उचका कर कहता, देखते हैं.
कुछ समय बाद जब लगने लगा कि वाकई मैं फार्मासिस्ट बनने जा रहा हूँ, तो मन पर एक अजीब सी बेचैनी सवार हो गई. डॉ बनने का ख्वाब मुझे धुंधला होता हुआ दिखाई पड़ने लगा. कानपुर में दाखिले का समय नजदीक आता जा रहा था और मेरी बेचैनी बढ़ती जा रही थी.
पहले कुछ दबे स्वरों में फिर मुखर होकर मैंने घर में इस पर संवाद करने की कोशिश की, पर वहाँ तो कोई बात ही सुनने को तैयार नहीं हुआ. दोस्तों से रात - रात भर चर्चाएँ हुईं पर कोई ठोस नतीजा नहीं निकल रहा था. इसी क्रम में नक़वी सर से भी मिला. उन्होंने ध्यानपूर्वक मेरी पूरी दास्ताँ सुनी फिर निर्णय सुना दिया. यार, तुम डी फार्मा ज्वाइन कर लो, पीएमटी का कुछ भरोसा नहीं है. वैसे तुम में संभावनाएं बहुत हैं. पर अभी जो हाथ में है उसे छोड़ना उचित नहीं.
अब जब गुरु द्रोणाचार्य का ही विश्वास डगमगाने लगा तो मुझे भी चिड़िया की आँख धुंधली दिखाई देने लगी. निर्णय हो चुका था और मैंने दुखी मन से कोचिंग जाना बंद कर दिया.
बात आई जमा की हुई फीस की. पंद्रह सौ कुल फीस में से बॉटनी वाले अब्बास सर के पैर छू - छू कर तीन सौ रुपये और कम करवा लिए थे. अब्बास सर वाकई बहुत सरल और सहृदय व्यक्ति थे. अपने विषय के तो महान ज्ञाता थे ही. पूरी बॉटनी का भारी भरकम कोर्स बेचारे अकेले सारे बैचेज को पढ़ाते. आँखों में कीचड़ और सर पर हेलमेट लगाए अब्बास सर आते ही सिगरेट फूंकते और चाक लेकर पढ़ाना शुरू कर देते. गरीब छात्रों की मदद के लिए वह हमेशा आगे रहते. उन्ही की दया से मेरे भी तीन सौ रुपये कम हो गए थे और कुल बारह सौ रुपये मैंने जमा किये हुए थे. काफी दौड़ भाग और अब्बास सर के सहयोग से उसमे से पांच सौ रुपये मुझे वापस भी मिल गए, जिसकी बिलकुल भी उम्मीद नहीं थी.
मेरा सपना टूट चुका था और आँखों में आंसू लिए मैं साइकिल पर वापस घर की ओर जा रहा था. किसी डॉ का बोर्ड देखकर पल भर के लिए ठिठका. वहाँ मुझे केवल उसकी डिग्री दिखाई पड़ रही थी ' एमबीबीएस ' मेरे आंसू गालों पर बह चले थे. मैं धीरे - धीरे बुदबुदा रहा था, चलो, भगवान् की जैसी इच्छा. मैं डॉ नहीं बन पाया तो क्या, पर अपने बच्चे को डॉ जरूर बनाऊंगा.
मैं बुदबुदाता जा रहा था और भगवान् मुझे देखकर मुस्करा रहा था.
जारी है ........

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