गांव का एक लड़का ( 25 )
एक कोचिंग से ठोकर खा कर लौटने के बाद दुबारा किसी कोचिंग में घुसने के लिए हिम्मत चाहिए थी, जो एक झटके से साइकिल के पंक्चर ट्यूब की तरह फुस्स हो गई थी l कीला तो निकाल फेंका था, पर अभी पंक्चर रिपेयर कर उसमे हवा भरनी शेष थी l
बहुत तरह के ख्याल दिमाग में आ रहे थे l किताब उठाई जाय और घोटा लगाया जाय या फिर किसी कोचिंग पढने वाले लड़के से कोचिंग नोट्स ले कर फोटोस्टेट करा लिया जाय l पर मामला कुछ जमता न था l
तभी पता चला कि गुलाब सिनेमा के पीछे एक बिलकुल नई कोचिंग पुराने मास्टरों को लेकर गठित हुई है l उन्हें भी सपने देखने वालों का बेसब्री से इंतेज़ार था l अगले दिन हम लोगों की साइकिल दौड़ पड़ी क्रिश्चियन कॉलेज के सामने गुलाब सिनेमा के ठीक पीछे ' सुपीरिअर कोचिंग 'l वहाँ सचमुच में प्रवेश धड़ाधड़ चालू थे l पैसा जमा कीजिए, नाम लिखाइये l अगले दिन से क्लास ज्वाइन कीजिए l अंधे को क्या चाहिए, दो आँखे l फीस भी बहुत कम, केवल पंद्रह सौ रुपये l शिक्षकों और पढाई के बारे में हम दोनों ने कोई पूछ - ताछ बिलकुल भी नहीं की, न ही हमसे हमारी अंकतालिकाओं के बारे में किसी ने कुछ पूछा l अगले दिन पांच सौ रुपये अग्रिम देकर रजिस्टर में नाम लिखाया, समझिए किला फ़तेह कर लिया l
पढ़ाई शुरू हुई l पढ़ने की भूख ऎसी कि सब कुछ चट कर जाने को उतारू l मैं रातों दिन पढने लगा l ट्यूशन पढ़ाने एक बार जाता, सुबह में l शाम को खुद पढ़ने, कोचिंग l शाम वाला बैच जान बूझकर लिया गया कि सुबह के बैच में कन्याएं अधिक होती हैं, ध्यान भंग होने का ख़तरा रहेगा l पढ़ाई चौबीसों घंटे होती l सोते हुए सपनों में पढ़ता, जागते हुए नोट्स से l खाना बनाते समय. खाना खाते समय हाथ में कॉपी होती l साइकिल पर हाथ में एक पन्ना होता l जितने भी मेरे साथ पढने वाले थे वह सब मुझसे मीलों आगे थे l मैं एक गहरे गड्ढे में था l वस्तुतः मुझे किसी सब्जेक्ट में कुछ भी नहीं आता था l बराबर की दौड़ लगाने के लिए पहले मुझे गड्ढे से निकलना था, फिर तेज दौड़ लगानी थी l
जब आपको लगता है कि अब सभी समस्याओं का हल मिल गया है तो जीवन में नई समस्याएं अवतरित हो जाती हैं l समस्याओं से पीछा भला कब छूटता हैं l यहाँ भी एक विकराल समस्या मुहं बाए खड़ी थी l जिस फिजिक्स से मेरा पीछा राम - राम करके दो साल पहले छूट चुका था, वह फिर से मेरी छाती पर सवार थी और उसके हाथ मेरी गर्दन नाप रहे थे l मैंने कई बार मन से कोशिश की, लेकिन मेरे दिमाग का वह हिस्सा जहां नंबरों से खेला जाता है, जीवन भर सोया ही रहा l आज भी मुझे अपनी गाड़ियों का नंबर तक याद नहीं रहता l मैं जितना ज्यादा न्यूमेरिकल हल करने की कोशिश करता, उतनी ही घबराहट बढ़ने लगती l इस चक्कर में बाक़ी विषयों के लिए भी समय कम पड़ने लगा l फिजिक्स की किताब देखते ही मेरे हाथ - पाँव फूलने लगते l मुझे लगने लगा यह फिजिक्स मुझे कुँए से ही नहीं निकलने देगी l
कहते हैं कि जब कहीं समस्या होती है तो आस - पास ही उसका हल भी होता है l मुझे परेशान देखकर भगवान् ने एन वक्त पर मेरे लिए एक देवदूत भेज दिया l शायद ईश्वर ने खुदा को चाय पर मेरी परेशानी बताई हो और फिर खुदा ने इस नेक बन्दे को काम पर लगा दिया l खुदा के बन्दे का नाम था ' नक़वी सर 'l
एक दिन ज़ूलोजी पढ़ाने वाले नक़वी सर ने आते ही पहला सवाल दागा l आप लोगों में से किस - किस को फिजिक्स से डर लगता है? मैंने अपने दोनों हाथ खड़े कर दिए l एक - एक हाथ तो आधी क्लास ने ही खड़े किये थे l फिर उन्होंने वह गणित पढ़ाई जिसने मेरा जीवन बदल दिया l
उन्होंने कहा बहुत सिम्पल सी बात है l देखिये, चार विषय हैं ज़ूलोजी, बॉटनी, फिजिक्स और केमिस्ट्री l सबके तीन - तीन सौ नंबर, कुल बारह सौ l आपको एमबीबीएस सलेक्शन के लिए चाहिए साढ़े सात सौ l आप फिजिक्स में लाइए जीरो, बाक़ी सब में ढाई - ढाई सौ l और यह हो सकता है l हो गया सलेक्शन l
मैं बिलकुल आश्चर्यचकित था l मुझे मुहं मांगी मुराद मिल गई थी l अब भला कौन है जो मेरा सलेक्शन रोके l पर ऊपर वाले की झोली में अभी समस्याओं के ढेरों सांप थे जो आगे मेरे गले में लटकने वाले थे l
जारी है .......
Comments
Post a Comment