गांव का एक लड़का ( 30 )
चक्रवर्ती सर ने ललकार दिया था और हमने चुनौती भी स्वीकार भी कर ली. पर बाबूजी ! समुद्र तो पार करने से ही पार होना था. डूबने की पूरी - पूरी संभावना थी, लेकिन ऎसी किसी संभावना पर मैंने किसी तरह का कोई विचार करना उचित नहीं समझा.
फार्मेसी के रोजगारपरक कोर्स को छोड़कर पीएमटी के बियाबान में खुद को झोंक देना एक पागलपन ही था. मेरे जीवन का यह एक अकेला ऐसा निर्णय था जिसे स्वीकार करने में मुझे छः महीनों का समय लगा. अन्यथा तुरंत निर्णय लेने और फिर बाद में भुगतने के लिए शापित हूँ. भीषण मानसिक घमासान के बाद निर्णय हो चुका था, या तो अब डॉ ही बनूंगा नहीं तो कुछ भी नहीं.
जाहिर है कि एक और घमासान अभी घर पर मेरा इंतज़ार कर रहा था. पर यह कोई बड़ी लड़ाई नहीं थी. जैसा कि अंदेशा था, पिताजी और बाक़ी घरवालों ने ( अम्मा को छोड़कर ) खूब दबाव बनाया. रिश्तेदार, सगे संबंधी बुलाये गए. फिर सबने बारी - बारी और समवेत स्वरों में तुलसी बाबा को याद किया, " जाको प्रभु दारुण दुख देही, ताकी मति पहिले हर लेही।”
अम्मा ने भी दूध का गिलास हाथ में देते हुए बाबा को ही गुनगुनाया, " राम कीन चाहें सोई होई, करै अन्यथा अस नहिं कोई."
अम्मा ने भी दूध का गिलास हाथ में देते हुए बाबा को ही गुनगुनाया, " राम कीन चाहें सोई होई, करै अन्यथा अस नहिं कोई."
हमको इस बारे में किसी तरह का कोई पुनर्विचार नहीं करना था सो नहीं किया. विचार यह करना था कि अब कैसे शुरू किया जाए.
1988 का अप्रैल महीना था जब फाइनली इस बात पर मुहर लगी कि फिर से पीएमटी के लिए तैयारी करनी है. इम्तहान के के कुल ढाई महीने बचे थे. हमारे छोड़े हुए बैच के बच्चों का पूरा कोर्स लगभग ख़त्म हो चला था. इस साल तो अब कुछ होने से रहा. चक्रवर्ती सर ने ही सुझाया कि नया क्रैश बैच बस शुरू ही होने वाला है, चाहो तो कल से आ जाओ, किसी तरह की कोई फीस तुमसे नहीं ली जायेगी. मेरा बस चलता तो मैं उसी दिन पहुँच जाता.
अगले ढाई महीने मेरे जीवन के सबसे महत्वपूर्ण दिन थे. दो महीनों में दो साल का पूरा कोर्स ख़त्म करना था सो कोचिंग ही लगभग पूरे दिन चलती. करीब बीस किलोमीटर दूर घर था कोचिंग से. साईकिल से आना जाना और खाना भी खुद ही बनाना. चौबीस घंटे बाद तारीख को तो बदलना ही था और उन ढाई महीने में एक - एक दिन कम होने लगा.
फिजिक्स को तो मैंने छोड़ ही रखा था पर बाक़ी विषयों में भी अपना हाल जीरो बटा सन्नाटा ही था. समय बहुत कम था इसलिए मैंने किसी टेक्स्ट बुक को नहीं खोला. केवल कोचिंग नोट्स पढ़े और जितना हो सका पिछले वर्षों के प्रश्नपत्रों को हल किया.
जितना कोचिंग में पढ़ाया जाता मैं उतना आत्मसात करने की कोशिश करता. अलग से पढ़ने का कोई वक्त नहीं था. एक बार नक़वी सर कोई नया चैप्टर शुरू करने जा रहे थे. उन्होंने कोई साधारण सा सवाल पूछा और कहा कि जिस - जिस को इसका उत्तर मालूम है वे लोग अपने हाथ ऊपर करें. लगभग सारी क्लास ने हाथ ऊपर किये हुए थे, पर मैं चुपचाप बैठा रहा. मुझे उत्तर वाकई नहीं मालूम था. नक़वी सर ने दो बार मुझसे पूछा, ' क्या वाकई तुम्हे नहीं पता? मैं क्या कहता बस सर हिलाकर रह गया. वह बेचारे हताश से हो गए.
क्लास ख़त्म होने के बाद मैं उनसे मिलने पहुँचा. वह बिलकुल समझ नहीं पा रहे थे कि यह कैसे हो सकता है. इतनी साधारण सी बात मुझे कैसे नहीं मालूम. और फिर मैं टेस्ट में टॉप कैसे करता हूँ. मैंने उन्हें बताया सर मेरी स्लेट बिलकुल कोरी है. आप जो लिखवा देंगे वह मुझे कंठस्थ हो जाएगा, बस. आप जितने चैप्टर पढ़ा चुके हैं उसमे से कुछ भी पूछिए, मैं जवाब दूंगा. उन्होंने धड़ाधड़ कई सवाल दाग दिए और समुचित उत्त पाकर प्रसन्न भी हुए.
लेकिन कुछ अप्रत्याशित नहीं होना था सो नहीं हुआ. इम्तहान हुए, कुछ दिनों बाद रिज़ल्ट आया, और सफल प्रत्याशियों की लिस्ट में मेरा नाम दूर - दूर तक कहीं नहीं था.
नंबर इस प्रकार थे, जूलोजी - 266/ 300, बॉटनी - 217/ 300, केमिस्ट्री - 132/ 300, फिजिक्स - 41/ 300. कुल 656/ 1200.
एमबीबीएस में इस वर्ष का आखिरी सलेक्शन हुआ शायद 740 के आस पास.
जारी है .........
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