गांव का एक लड़का ( 22 )
जैसी कि आशंका थी, मैं बी एससी के पहले ही साल में चारो खाने चित्त हो गया था l लेकिन कोई बहुत दिल को ठेस लगी हो, ऐसा भी नहीं था l मुझे पता था कि मैंने कुछ पढाई की ही नहीं थी, सो पास होना बनता भी नहीं था l फेल होने से बुरा तो खैर क्या होता l लेकिन इस एक साल में काफी कुछ अच्छा भी हुआ l जिसने जीवन के युद्धक्षेत्र में बने रहने का हौसला दिया l एक तो यह हुआ कि अंग्रेजी से झिझक कुछ कम हुई, हालांकि अंग्रेजी से प्रगाढ़ दोस्ती तो अभी तक नहीं हो पाई है l अंग्रेजी जब कभी सार्वजनिक रूप से मिलती है तो अभी भी मैं सहज नहीं रह पाता l दूसरा यह हुआ कि पढ़ाने वाले शिक्षकों और साथ पढने वाले कुछ विद्यार्थियों का ज्ञान और विद्याध्ययन के प्रति उनका समर्पण देख कर मन उत्साहित हुआ l
वैसे तो अब देर हो चुकी थी और मैं फेल हो चुका था l परन्तु मन में कुछ करने की इच्छा बलवती होने लगी थी l पूरे साल कॉलेज नहीं जाना था, एक साल के बाद केवल इम्तेहान देने थे l अब मैं वाकई खुद कुछ पैसे कमाकर पढाई करना चाहता था l किसी तरह का कोई गुस्सा नहीं था, न अपने ऊपर, न ही दूसरों पर l शहर भी मेरे लिए अब अजनबी नहीं रहा था l आत्मविश्वास ने अंतर्मन के अँधेरे में पाँव पसारना शुरू कर दिया था l मैं अब अपने करियर के बारे में सोचना शुरू कर रहा था l बाक़ी परिवार, पिता मेरी तरफ से निराश हो चुके थे l माँ कभी अपने बेटे से निराश नहीं हुई l उसे हमेशा लगता कि मेरा पढ़ाकू बेटा एक न एक दिन कुछ करेगा l अब मेरे ऊपर कोई स्कैनिंग नहीं थी l कहाँ जा रहा हूँ, क्या कर रहा हूँ, किसी से कोई मतलब नहीं l
फिर से नौकरी की तलाश शुरू हुई l ले दे कर फिर वहीं बाबूजी की शरण में था l बाबूजी ने इस बार ज्यादा सवाल जवाब नहीं किये l वह भी शायद निराश हो चले थे l उन्होंने एक चिट्ठी दी एक इंजीनियर साहब के नाम l इन्द्रानगर कॉलोनी उस समय बन रही थी l वहीं पर पी डब्ल्यू डी का एक कैम्प ऑफिस था l पहली बार ऑफिस गया तो छोटे साहब, जिनके नाम चिट्ठी थी, वह थे नहीं l उनके कैम्प क्लर्क ओ पी सेठ जी मिले l पान चबाते हुए सेठ जी ने कहा, साहब के घर शाम को चलेंगे चाहो तो घर पर मिल लो l मुझे कोई और काम था नहीं सो सेठ जी के साथ दिन गुजारा l शाम को हम दोनों लोग अपनी - अपनी साइकिल से डालीगंज गर्ग साहब के बंगले पर पहुंचे l साहब ने ऊपर से नीचे मुझे देखा l पूछा, क्या कर रहे हो अभी? जी, बी एससी कर रहा हूँ l हूँ, चलो कल से ऑफिस आ जाओ l सेठ जी, इनको अपने पास ही रख लो, ये शुक्ला जी के भतीजे हैं l फिर मुझसे मुखातिब होते हुए बोले, ' ऐसा करो, शाम को बच्चों को देख लिया करो, घर पर l ' मैंने हाँ में मुंडी हिलाई और वहाँ से चला आया l
अगले दिन से ऑफिस - ऑफिस खेलने लगा l वहाँ मैं सेठ जी के पास चिपका रहता, उनका असिस्टेंट बनकर l सेठ जी बढ़िया आदमी थे, दिन भर चाय पानी कराते रहते l पर वहाँ की कूटभाषा मुझे कुछ पल्ले ही नहीं पड़ती l शाम को गर्ग जी के बच्चों को पढ़ाने जाने लगा l पढ़ाता क्या? बस होमवर्क ही करा देता था l उसमें ही मेरे पशीने छूट जाते l दिनचर्या फिर वही नौकरी वाली हो गई, अपने लिए कोई वक्त ही नहीं बचा l खैर, यह क्रम कोई महीना भर चला होगा l पैसा तीन सौ रुपये महीने के आखिर में मिले, एक जगह दस्तखत करने के बाद l शायद किसी मस्टर रोल में मेट के पद पर नाम था l फिर अचानक एक दिन गर्ग साहेब के दफ्तर में घुस गया और बोल दिया l सर, मैं एक ही जगह आ पाऊंगा या तो ऑफिस में या घर में l मुझे अपने पढ़ने के लिए मौक़ा ही नहीं मिल रहा l गर्ग साहब ने मुझे घूरा फिर कुछ सोच कर बोले, अच्छा तुम फील्ड में जाओ l जेई साहब हैं मिस्टर लाल, उनसे मिल लो l
लाल साहब उसी वक्त पहाड़ से उतरे थे मैदान में l मतलब भवाली, नैनीताल से लखनऊ l मलीहाबाद की फील्ड थी उनके पास l उन्होंने पहला प्रश्न दागा l कितना पढ़े हो? जी, बी एससी कर रहा हूँ l कुछ सोचते हुए लाल साहब बोले, ' अरे यार कहाँ तुम फील्ड में जाओगे, सुबह शाम बच्चों को देख लिया करो l यहाँ भी मस्टर रोल में मेट बना दिया गया l तनख्वाह निकलने लगी तीन सौ रुपये महीना l लेकिन यहाँ बहुत सुकून था l सुबह शाम एक डेढ़ घंटे बच्चों को पढ़ाना शुरू किया l करीब दो घंटे आने जाने में खर्च होते l बाक़ी का समय खाली l खाली समय का उपयोग अब कोर्स की किताबों पर खर्च होने लगा l फिल्मों की आभाषी दुनिया का पागलपन अब कम होने लगा था और वास्तविक दुनिया में कदम बढ़ रहे थे l
जारी है ........
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