गाँव का एक लड़का ( 1 )
आषाढ़ के एक उमस भरे दिन, गाँव की किसी अँधेरी कोठरी में मेरा जन्म हुआ l ऐसे ही हमारे समय के बच्चे इस दुनिया में आते थे l गांव की ही कोई बुज़ुर्ग महिला प्रसव सहायक होती और बच्चे बुआओं - चाचियों की गोद में चिग्घाड़ना शुरू कर देते l बच्चों के बहुतायत वाले घर में पैदा होना पूरे परिवार के लिए भले ही कोई बहुत आह्लादकारी क्षण न रहा हो पर माँ की ममता तो बस बरस ही पड़ी होगी l माँ बताती हैं कि उस दिन मेरे पैदा होने के बाद खूब बरसे बादल और मैं माँ की गोद में दुबका रहा कई घंटों तक बिना हिले डुले l
संयुक्त परिवार के लगभग दर्जन भर भाई बहनों की सालगिरह एक जैसी ही होती l दिन में अम्मा, बुआओं और दादियों के निर्देशन में हाथ ऊंचा करा डोरा नापतीं, काले तिल मिला हुआ दूध पिलातीं, रोचना लगातीं, गुलगुले बनातीं l शाम को बुलउवा होता दीदियाँ, भाभियाँ, चाचियाँ मिलकर ढोलक पीटतीं, गौनई होती, गुलगुले और बताशे बँटते l बस, अगले बच्चे की तारीख तय होती और समारोह ख़त्म l
घर से बाहर स्कूल में, दोस्तों के साथ जन्मदिन मनाने का चलन नहीं था l किसी दोस्त का कभी जन्मदिन याद भी नहीं रहा l मेडिकल कॉलेज में पहली बार घर से बाहर बर्थ डे पूछा गया तो जो लिखा पढ़ी में था वही चल निकला l
कई सालों तक कागजों पर लिखी हुई तिथि को ही मैं अपना जन्मदिन मनाता और मानता रहा l वह तो भला हो शादी के समय खोजी गई जन्मकुंडली का जिसकी बिना पर यह तय हुआ कि 29 जून को इस गोले पर मेरा पदार्पण हुआ l अम्मा को आज भी 29 जून नहीं याद है l वह तो लगते आषाढ़ की कोई तिथि बताती हैं जो मुझे याद नहीं रहती l
कई सालों तक कागजों पर लिखी हुई तिथि को ही मैं अपना जन्मदिन मनाता और मानता रहा l वह तो भला हो शादी के समय खोजी गई जन्मकुंडली का जिसकी बिना पर यह तय हुआ कि 29 जून को इस गोले पर मेरा पदार्पण हुआ l अम्मा को आज भी 29 जून नहीं याद है l वह तो लगते आषाढ़ की कोई तिथि बताती हैं जो मुझे याद नहीं रहती l
मैं बचपन को जब भी याद करता हूँ, तो मां के बाद जो चेहरा उभरता है, वह है मेरे बाबा का l कुछ सबसे पुरानी धुँधली पड़ती तस्वीरों के फ्रेम में भी बाबा जी ही प्रमुखता से छाये रहते हैं l
अगस्त 1973 की एक दोपहर. बाबा मेरी ऊँगली पकड़ कर गाँव से करीब ढाई किलोमीटर दूर, दूसरे गाँव के प्राइमरी स्कूल पहुँच गए हैं l कक्षा एक में मेरे दाखिले के लिए. हेडमास्टर तिवारी जी ने बिना पूछे ही जन्मतिथि लिख मारी l मैं पैदा हुआ था आषाढ़ में शुक्ल पक्ष की सप्तमी को. यह बात तो मेरे बाबा को भी पता नहीं थी, मुझे तो खैर क्या पता होती l हेडमास्टर साहब को हमारी अनभिज्ञता का अंदाजा पहले से ही था इसलिए उन्होंने पूछने में समय गँवाना उचित नहीं समझा l
अभी दाखिले की प्रक्रिया चल ही रही थी कि एक बच्चे की जोर जोर से चीखने की आवाजें आने लगीं. देखता हूँ कि एक दुबले पतले लड़के पर नाटे कद का एक तंदरुस्त आदमी, बेशरम ( तालाबों के किनारे उगने वाला एक पौधा, जिसके चिकने और लचीले तने बच्चों की पिटाई के लिए सर्वथा उपुक्त और सर्वसुलभ हथियार थे ) का डंडा लेकर पिला हुआ है l बाद में पता चला कि यह पिटने वाला बालक मुझसे 2 साल ऊँचे दर्जे, कक्षा 3 में है. आगे चलकर कक्षा 5 में हम दोनों फिर साथ साथ पढ़े. पीटने वाले महाशय ' मरकहे पंडित जी ' कक्षा 1 और 3 को पढ़ाने वाले अवस्थी जी थे. हालाँकि आगे चलकर मरकहे पंडित जी ने कभी मुझे इतनी बुरी तरह नहीं मारा ( एक आध थप्पड़ और दो चार डंडे हथेलियों पर, कोई मार खाना नहीं समझा जाता था ), परन्तु पूरे 5 वर्षों तक मैं उनसे दहशत खाता रहा l
हमारे प्राइमरी स्कूल में एक कमरा और दो बरामदे थे l एक अकेला कमरा, प्रधानाचार्य ऑफिस, स्टोर रूम , साईकिल स्टैंड, मीटिंग रूम, सांस्कृतिक सभागार, अध्यापकों की गोपनीय फुसफुसाहट कक्ष के अलावा सीनियर बच्चों ( कक्षा 5 ) की कक्षाओं के लिए इस्तेमाल होता l बाकी बची 4 कक्षाएँ दोनों बरामदों में या फिर महुए के पेंड़ के नीचे लगती थीं l साईकिल केवल मास्साब लोगों के पास थीं, जिन्हें कमरे में रखना, उन्हें साफ़ करना और छुट्टी होने पर निकाल कर पंडित जी या मुंशी जी को पकड़ाना, क्लास के होनहार बच्चों का काम था l कक्षा पाँच में बोर्ड के इम्तेहान होते थे तो थोड़ा बहुत पढ़ाया जाता था. बाकी कक्षाओं में बस पूरे साल इमला और पहाड़े ही होते थे. सत्रह और उन्नीस का पहाड़ा बिना रुके हुए, बिना भूले हुए सुना देना ही, ज्ञान की कसौटी थी. इसका प्रत्यक्ष लाभ यह था स्कूल में बच्चों की पर्याप्त संख्या बनी रहती थी l बच्चे अपना नाम लिखना सीख लेते और पाचवी पास कहलाते l छठी क्लास के लिए स्कूल काफी दूर था और वहाँ जाने से खेती का नुकसान होता शायद यही सोच कर हमारे अध्यापक और अभिभावक बच्चों में पढने की ललक पैदा ही नहीं करते l जिनमे यह गलती से पैदा हो जाय उसको बात - बेबात तब तक धुनते रहते जब तक ललक नाम की चिड़िया उड़ न जाय l उसका परिणाम यह हुआ कि कक्षा 5 का मेरा कोई भी सहपाठी हाईस्कूल नहीं पास कर सका.
स्कूल परिसर के नाम पर ऊबड़ खाबड़ एक खुला मैदान था l किसी तरह का कोई अवरोध न होने के कारण जानवर बारिश में वहीं बरामदों में बैठते और गोबर करते थे l हम लोगों के लिए दो तीन पेंड महुए के और एक पुराना कनकोहर का बिरवा भी था l यह एक बहुत पुराना पेंड़ था l बहुत घना l उसके तने के चारों ओर बहुत बड़ी बड़ी जड़ें जमीन में घुसने से पहले ऊपर की ओर उठी हुई थीं. हम सभी अपना लंच ले कर भागते थे जड़ों की ओर l आज मेरा मन भी उछल कर उसी तेजी से अपनी जड़ों तक पहुँचना चाहता है l लंच में सबके पास डालडा से बने हुए चार - चार पराठे एक रुमाल में बंधे हुए, जिसके एक कोने में गाँठ लगाकर हरी धनिया मिला नमक होता था. हमने किसी बच्चे को इसके अलावा कुछ और लाते हुए नहीं देखा. कभी कभार किसी के पास गुड़ का छोटा टुकड़ा निकल आता था या पेंडे के टुकड़े l बिल्कुल सूख चुके पराठों को नमक के साथ जल्दी से निगलने में अक्सर आहारनाल को छिलते हुए निकल जाते l गले में गड़ते हुए टुकड़े आज भी महसूस कर सकता हूँ. जल्दी इसलिए कि लंच टाईम में ही घर से मिले पाँच, दस, या कभी कभी चवन्नी के सिक्कों को भी ठिकाने लगाना होता l एक नया पैसा और दो नए पैसे के सिक्के भी प्रचलन में थे पर अकेले चल पाना उनके बस का नहीं रह गया था l बड़े सिक्कों की ऊँगली पकड़ कर वे भी चल ही लेते थे l चूरन, कम्पट की सूर्यनारायण की दूकान गाँव के काफी अन्दर थी l
- जारी है .....
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