गांव का एक लड़का ( 6 )
खेत, खलिहान, गाय भैंस, बैल, खेल में ही सारा जीवन था l पढ़ाई केवल स्कूल तक ही सीमित थी l वहाँ भी पढाई भगवान भरोसे थी l पढाई के लिए कोई इंसेंटिव नहीं था, काम के लिए था l बखारी से अकेले पांच बोरे गेहूं निकालने पर भाई सबकी नजरों में हीरो हो जाते l एक कटोरी खोया - शक्कर भी उसको चुपके से मिल जाता l वहीं अगर मैं पांच घंटे लगातार पढूँ और चार पाठ कंठस्त कर लूं तो यह कामचोरी में गिना जाता l मैं हमेशा से दुबला - पतला, मरियल सा लड़का था l खेती किसानी के काम मेरे बस के थे नहीं, हाँ, पढने का शौक जरूर था l पर उसे कामचोरी मान ली जाती l मेरे बड़े भाई और मैं दो लोग ही थोड़ा इस लायक थे कि कुछ कर सकें, बाक़ी के सब बहुत छोटे थे l ले दे कर हम दोनों की जोड़ी ही आगे लगा दी जाती l बड़े भाई उम्र में तो मुझसे ढाई - तीन साल बड़े थे ही, शरीर में भी बीस थे l यूं तो मैं शुरू से ही कामचोर था पर कोई बहाना चलता ही नहीं था l भाई के साथ मैं भी पीछे - पीछे घिसटता रहता l
खेती के कामों से कभी फुर्सत ही नहीं होती l जाड़ों में जब पढ़ाई का समय होना चाहिए, और छमाही के इम्तेहान सर पर होते तब गेहूं के खेतों में सिंचाई करनी होती l सरकार की कृपा से नहरें हमारे इलाकें में पानी कभी न ला पाईं l पानी या तो ताल - तलैय्या से खींचते या फिर जमीन में खूंटा गाड़ कर l बाबा को बड़ा आश्चर्य हुआ जब पहली बार बोरिंग कर पानी निकाला गया l चार खेत चारों दिशाओं में l उससे फुर्सत मिलती तो उड़द, मूंग के दिन आ जाते साथ में मूंगफली भी l पूरा आँगन मूंगफली और उड़द से भर जाता l हर पौधे से मूंगफली और उड़द की छीमियाँ अलग करना बेहद नीरस और उबाऊ काम हुआ करता l शाम को रोज मूंगफली का होला लगाया जाता l दंतविहीन बाबा, मूंगफली उबाल कर, पीस कर खाते l
सालाना इम्तेहान के बाद डेढ़ - दो महीने तो घर में इमरजेंसी लगी रहती l छुट्टी मनाना तो दूर बीमार होने के लिए भी भी समय नहीं होता l सुबह चार बजे अपना - अपना हँसिया लेकर गेहूं काटने के लिए सेना पहुँच जाती l मैं तो एक हल्का हँसिया रात में ही अपने बिस्तर के नीचे रख लेता l पूरे साल में शायद यही समय होता जब पिताजी भी अक्सर साथ होते l ग्यारह बजते - बजते सेना थक कर चूर हो जाती और जवान छाँह ढूंढते हुए एक - एक कर निकलने लगते l बाबा दोहराते " हाँ जवानों, मार लाये, बस पूंछ रह गई है l" शाम चार बजे से कटी हुई लाँक ( गेहूं के पौधे ) समेटते और बोझ बनाए जाते l पूरा खेत कटने के बाद बोझ खलिहान में इकट्ठे होते l यह कहने में जितना सहज है उतना ही कठिन होता इस प्रक्रिया को पूर्ण करना l फिर शुरू होती मड़नी, जो महीनों तक चलती l गर्मियों की ठंडी चांदनी रातों में खलिहान पर आधा गाँव रहता l देर रात तक कबित्त, आल्हा, होता l दिन भर की थकान फुर्र हो जाती l बाद के दिनों में थ्रेशर आ गए l काम बहुत जल्दी ख़त्म हो जाता पर आनंद भी घट गया l खेतों में बिजली भी पहुँच गई l बिजली ज्यादातर रात में ही आती l नींद के झोंकों में थ्रेशर में लांक लगाना बहुत खतरनाक होता l बहुतों के हाथ ये थ्रेशर निगल गए l हमारे सामने तो कभी यह दुर्घटना नहीं हुई, पर सुनाई पड़ता रहा l नींद ऎसी आती कि किसी भूसे के ढेर पर बेसुध हो कर सो जाते l मन ही मन मनाते कि भगवान् लाईट चली जाए l
अरहर की कटाई तो खैर एक खेल की तरह होता l गड़ासे से एक ही वार में मजबूत अरहर का पेंड़ धराशाई हो जाता, बशर्ते उसका एंगल ठीक हो l असली परेशानी तो उसे पीटने और दाने निकालने में होती l एक भीरी के पच्चीस पैसे इंसेंटिव दिया जाता जब सेना थक चुकी होती l
ऐसे ही खलिहान का एक किस्सा याद आ गया, आप भी सुनिए l
बात बहुत पुरानी है, लगभग चालीस साल पुरानी l गरमी के दिन थे l गेहूं खेत से कटकर खलिहान में आ गए थे l आम के पेड़ों के बीच में धूप - छाँव, भूसा बन रही गेहूं की लांक पर चित्र सा बना रही थी l भरोसे चाचा ( नाम बदला हुआ है ) बैलों के पीछे पीछे गोल गोल घूम रहे थे l बीच बीच में बैल जब गोबर करते तो हमलोग उसे हवा में ही दोनों हथों से गोंच लेते और बाहर फेंक देते l लेकिन बैलों का गेहूं पर पेशाब करना तो बनता ही था l बेचारे कैसे बताते और बताते भी तो कौन सा हम उन्हें गुसलखाने में ले जाते बेशाब कराने l वैसे भी गोवंश का पेशाब कोई नाक भौं सिकोड़ने की चीज नहीं होती है l
लगभग ग्यारह बज रहे होंगे l हम दोनों भाई पेंड़ से कच्ची अमियाँ तोड़ने में व्यस्त थे l बाबा खोपड़ी के नीचे अँगोछा रखे, आधा बदन नंगा, नीचे की धोती जाँघों पर ऊपर तक खिसकाए हुए, पैर के ऊपर पैर रखकर त्रिभुज बनाते हुए छाँव में आंखें बंद कर लेटे हुए थे l तभी अचानक एक बड़ी पूरी ( शादी के बैना में बांटने वाली मैदे की सफ़ेद पूरी ) का चौथाई हिस्सा भरोसे चाचा और बैलों के बीच आसमान से गिरा l अनुमान यह लगाया गया कि शायद कौए की चोंच से फिसल कर गिरा होगा l
बाबा आंखें बंद कर सो रहे थे,हम दोनों भाई अमिया तोड़ने में व्यस्त थे तो जाहिर है भरोसे चाचा के अलावा उस टुकड़े को देखने वाला वह कौआ ही एक मात्र प्राणी था l कौए की शायद हिम्मत नहीं पड़ी होगी नीचे उतरने की क्योंकि वह टुकड़ा अब तक भरोसे चाचा अपने हाँथ में उठा चुके थे l बैल खड़े हो गए थे, भरोसे चाचा का हाँथ उस टुकड़े को मुंह तक ले जाते जाते रुक गया l थोड़ी देर वह कुछ सोचते रहे, इधर उधर देखा फिर वह टुकड़ा लेकर बाबा के पास पहुँच गए l हम दोनों भाई भी तब तक वहीं आ गए l
चौधरी भैया - चौधरी भैया कहते हुए वह पैरी के नीचे उतर आए l पूरी का वह टुकड़ा उनके जिस हाथ में था वह उसे आगे करते हुए बोले " चौधरी भैया यह पूरी, कौआ कहीं से लेकर आया होगा, उससे यहाँ गिर गया है l वैसे तो इस पर उसी कौए का पहला हक है लेकिन अब वह तो मिलने से रहा l चूँकि यह टुकड़ा आपकी लांक ( गेहूं के पौधों का ढेर ) पर गिरा है तो इस पर दूसरा हक़ आपका बनता है l अगर आपकी आज्ञा हो तो मैं इसे खा लूं "
बाबा थोड़ी देर तक कुछ नहीं बोले, बस भरोसे चाचा को घूरते रहे l कुछ देर बाद उठकर बैठते हुए बोले, " भरोसे भैया फेंक दो इस टुकड़े को बैल के सामने, तुरंत काम बंद करो और घर चलो l " भरोसे चाचा ने याद दिलाया कि अभी तो ग्यारह ही बजा है अभी काम बंद करने का समय नहीं है l पर बाबा ने तुरंत काम बंद करा दिया l अब हम सभी लोग घर जा रहे थे l घर पहुँच कर बाबा ने सबसे पहले भरोसे चाचा को गुड़ खिलाकर पानी पिलाया, भरपेट खाना खिलाया, तम्बाकू खिलाई तब जा कर उनके चेहरे पर संतोष का भाव उभरा l
( उच्च कुलीन ब्राह्मण, भरोसे चाचा अभी जीवित हैं )
जारी है ....
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