Skip to main content

गांव का एक लड़का ( 9 )



एक बार कक्षा तीन में हमारे मरकहे पंडित जी ने यह प्रस्ताव रखा कि मुझे कक्षा पांच में कुदा दिया जाए l लेकिन मेरी घबराहट और रोने धोने को देखते हुए उन्हें अपने उत्साह और सदाशयता के विचारों की आहुति देनी पड़ी l एक बार तो मैंने गलती से कक्षा छः की गणित की पुस्तक देख ली फिर मुझे सोच - सोच कर जो रोना आया कि हे भगवान् ! मैं ये सवाल कैसे कर पाऊंगा l
पांचवी का इम्तेहान बोर्ड इक्जाम होता और पूरे साल स्कूल में यह दोहराया जाता कि कुछ पढ़ लिख लो इस बार बोर्ड है l सीधे फेल कर दिये जाओगे l इम्तेहान में ब्लैकबोर्ड पर जब सवाल लिखे जाने लगे तो समझ में आया कि ये है बोर्ड इक्जाम l खैर, पास हो गए और पास ही नहीं क्लास में टॉप भी किया l उस क्लास में जिसके बाक़ी बच्चे हाईस्कूल की परीक्षा में भी बैठने से वंचित रह गए l ज्यादातर तो पढाई और मार के डर से ही स्कूल छोड़ कर भाग खड़े हुए l कुछ को पारिवारिक गरीबी, पारिवारिक अशिक्षा आदि समस्याओं के कारण भी स्कूल छोड़ना पड़ा होगा l स्कूल छोड़ना एक बहुत स्वाभाविक प्रक्रिया थी जो आस पास हमेशा घटित होती रहती l
छठी क्लास के लिए घर से स्कूल की दूरी अब लगभग 6 किलोमीटर थी. पगडंडियाँ लम्बी हो गईं थीं और बस्ते ज्यादा वजनी l उसके रास्ते में एक छोटी नदी पड़ती थी l नदी के अब तो अवशेष ही शेष रह गए हैं l उस छोटी नदी पर उस समय कोई स्थाई या अस्थाई पुल नहीं था l अब पुल है तो पानी ही नहीं है l बरसात को छोड़कर साल के बाक़ी दिनों में तो पैंट ऊपर कर या फिर निकालकर उसे ऐसे ही पार किया जाता था, परन्तु बारिश के मौसम में चप्पू वाली नाव पर ही जा सकते थे l पिताजी बताते हैं नाव से पहले घन्नई चलती थी l घन्नई मिट्टी के कई घड़ों को बनाया जाता एक तैरता हुआ प्लेटफोर्म होता था l हर वर्ष 2- 3 महीने जब नाव की सवारी होती, बड़ा रोमांच रहता था l उन पांच वर्षों के दौरान कुल तीन बार मेरी नाव नदी में पलटी भी पर कोई हताहत या गंभीर रूप से घायल नहीं हुआ हाँ, बस्ते और किताबें भीगती रहतीं l तैरना सब को आता था l जब कभी स्कूल से छुट्टी मारने का मन करता तो नदी में किताबें भिगो कर सामूहिक रूप से घर लौट आते l पूरे सीज़न के मल्लाह स्कूली बच्चों से दस रुपये लेता, वैसे एक बार के पच्चीस पैसे l बहुत बार पैसे न जमा होने की स्थिति में वह हमें वापस भी कर देता l
मिडिल स्कूल के दाखिले के समय कोई समस्या नहीं थी l कक्षा छः में दो सेक्शन थे, सात और आठ में एक - एक l मेरा दाखिला ' क ' में हुआ l कक्षा छः ' क ' स्कूल के तीन कमरों में से एक कमरे में बैठता था l ' ख ' के लिए अलग से एक बँगला बना हुआ था l वहाँ वातावरण भी ज्यादा नैसर्गिक था l जाड़ों में ठंडी हवाएं पहाड़ का अहसास करातीं वहीं बारिश की रिमझिम फुहारें तन - मन को भिगो - भिगो देतीं l बारिश में एक समस्या थी, एक नहीं दो l पहली यह कि तेज बारिश में बड़ी बड़ी बूँदें सीधे कापियों पर गिर कर जहां तहां देशों के नक़्शे बना देतीं, जिसकी गणित या विज्ञान की कॉपियों में कोई ख़ास जरूरत नहीं थी l दूसरी समस्या ज्यादा गंभीर थी कि कभी - कभी बगल के जंगल से सांप देवता भी पढने के लिए क्लास में जबरदस्ती घुस आते और बच्चों को उनके सम्मान में क्लास खाली करना पड़ता l ये अलग बात है कि गुरूजी उस समय अंग्रेजी पढ़ाने की जगह शारीरिक शिक्षा का अध्याय पढ़ाते हुए दौड़ लगा रहे होते l
मरकहे पंडित जी ने यहाँ भी पीछा नहीं छोड़ा था, बस नाम बदल गया था l बेशरम के डंडों की जगह बोगेनवेलिया की पतली लचकदार डंडियों ने ले ली थी l लात घूंसे थप्पड़ सब यथावत थे बल्कि ज्यादा ताकत से प्रहारित होने लगे l ऐसा नहीं था कि सभी बहुत बेरहम होकर मारते थे l एक बार तो संस्कृत के गुरूजी ने मुझे केवल चार थप्पड़ मारकर वापस अपनी सीट पर भेज दिया l मेरा कुकृत्य यह था कि मैं बगल वाले बच्चे की पुस्तक में सही पेज न. खोजने की कोशिश कर रहा था ताकि अपनी पुस्तक भी खोल सकूं l मास्साब की दृष्टि मेरे घबराए चेहरे को ताड़ गई और फिर उन्हें ईनाम स्वरूप थप्पड़ बरसाने पड़े l
स्कूल आने पर अब जेब में पंजी - दस्सी की जगह चवन्नी - अठन्नी रहने लगी l स्कूल एक गाँव नुमा कस्बे में होने के कारण कुछ न कुछ सामान भी रोज ले ही जाना होता l वहाँ भी कुछ पैसे बचने की संभावना बनी रहती l जब हम स्कूल से लौटते तो हमारे पास अक्सर दो झोले होते l एक में हमारी पुस्तकें - पुस्तिकाएं बेतरतीबी से खुंसी रहतीं और दूसरे में नाना प्रकार के घरेलू सामान l कुछ सामान झोले में भी नहीं रखे जा सकते थे, मसलन लालटेन का शीशा l जिसे हम रस्सी में लटकाकर बड़ी एहतियात से घर तक लाते l कोई बड़ी दुर्घटना हो जाए तो अलग बात होती नहीं तो शीशा फूटने का मतलब जोरदार पिटाई l जब कभी यह नौबत आई तो हमने उसे बड़ी दुर्घटना का ही रूप दिया और काफी बार सफल भी रहे l
टिफिन टाईम में टिफिन तो अब भी नहीं था l वही चार पराठे और नमक था रूमाल में बंधा हुआ l सस्ते प्लास्टिक के टिफिन में यदि गरम पराठे रख भी लिए जाते तो वह अजीब से बदबू करते थे l सो, टिफिन से हम दूर ही रहे l हाँ खाने का स्वाद जरूर बढ़ जाता जब चवन्नी कि चाट मिल जाती, पराठों के साथ l जगदीश की मटर का स्वाद इतना स्वादिष्ट होता कि सोच कर अभी भी मुह में पानी आ गया l बड़े से तवे पर वह देर तक मटर भूनता फिर थोड़ी पापडी तोड़ कर डालता मसाले और नीम्बू के साथ एक दोने में परोसता l उस स्वाद का कोई जवाब अभी तक तो नहीं मिला l अब बेचारा जगदीश भी इस दुनिया में नहीं है l उसकी बहुत सारी चवन्नियां मुझ पर उधार ही रह गईं l बहुत बाद में मैंने उसे याद दिलाकर उधार चुकता करने की कोशिश की पर उसने ऐसा करने से इनकार कर दिया l
जारी है ......

Comments

Popular posts from this blog

चिल्ड्रेन्स हॉस्पिटल : कुछ नोट्स ( 5 ) रविवार का दिन ज़रा देर से शुरू होकर देर तक चलता है हमारे यहाँ. भीड़ भाड़ कुछ ज्यादा ही रहती है, और दिनों की अपेक्षा. इसका एक कारण डॉ साहब का शाम को न मिलना भी है. लोगों का अवकाश भी रहता है अपने दफ्तरों से. सो, आज रविवार है और दिव्यांश के पापा इसी भीड़ में रिसेप्शन पर भिड़े पड़े हैं. " हमको दिखाना नहीं है, बस बात करनी है डॉ से. लूट मचा रखी है. ये देखो सब टीके लगवाए हैं हमने फिर मेरे बच्चे को टाइफाइड कैसे हो गया? सारे डाक्टरों का ये लूटने का जरिया है. अरे भाई जब टीके काम ही नहीं करते हैं तो लगाते क्यों हो? पैसे कमाने के लिए? " हंगामा बढ़ता देख डॉ साहब ने पापा को चैंबर में बुला लिया है. आपको हमसे बात करनी थी? हाँ तो ठीक है, पहले आप बैठ जाइए डॉ ने स्टूल पर बैठे हुए बच्चे को पर्चा लिख कर विदा किया फिर दिव्यांश के पापा की तरफ मुखातिब हुए जी, बताइए? बताना क्या, आपने सारे वैक्सीन हमारे बच्चे को लगवाए. आपने जो जो कहे हमने सब लगवाए फिर भी हमारा बच्चा जब तब बीमार रहता है. देखिए फिर उसको टाइफाइड हो गया है. आपने पिछले साल ही इसका इंजेक्
मैं तो बचपन हूँ साथी मैं तो बचपन हूँ साथी मुझको दुख से क्या लेना दूब हमारी राहों में खुद मखमल सी बिछ जाती नीले पंखों वाली तितली मुझको पास बुलाती रोज रात में साथ साथ चलती तारों की सेना बाग़ बगीचे सुबह दोपहर मेरी राह निहारें रात मुझे थपकी देती हैं कमरे की दीवारें जेबें मुझे खिलाती रहतीं दिन भर चना चबेना बारिश की बूंदें मुझको खिड़की के पार बुलाएं मुझे उड़ाकर अगले पल बाहर ले चली हवाएं चाह रहा मन दुनिया में चटकीले रँग भर देना - प्रदीप शुक्ल
# किस्सा_किस्सा_लोककथाएं #1 शेषनाग पर लेटे हुए विष्णु भगवान लक्ष्मी जी से बतिया रहे थे। दीवाली का भोर था सो लक्ष्मी जी काफी थकी हुई लग रही थीं, परंतु अंदर से प्रसन्न भी। लक्ष्मी जी ने मुस्कुरा कर कहा, ' हे देव, कल देखा आपने, नीचे मृत्युलोक में कितना लोग मुझे चाहते हैं। विष्णु भगवान कुछ अनमने से दिखे। बोले, देखिये लक्ष्मी जी, दीवाली के दिन तो बात ठीक है, लोग आपकी पूजा करते हैं, आपका स्वागत करते हैं, बाकी के दिनों में भगवान, भगवान होता है। हो सकता है कि कुछ दरिद्र और  अशिक्षित लोग आप की आकांक्षा रखते हो आपका स्वागत करते हों और आप को बड़ा मानते हो, परंतु शिक्षित वर्ग और योग्य लोग भगवान को लक्ष्मी से ऊपर रखते हैं। लक्ष्मी जी ने मुस्कुरा कर कहा नाथ, ऐसा नहीं है। बाकी दिनों में भी मृत्यलोक के प्राणी मुझे ही ज्यादा पसंद करते हैं। और पढ़े-लिखे योग्य लोगों की तो आप बात ही मत करिए। बात विष्णु भगवान को खल गई। बोले, " प्रिये, आइए चलते हैं इस बात की परीक्षा ले ली जाए। हालांकि लक्ष्मी जी दीवाली में थक कर चूर हो चुकी थीं पर यह मौका हाथ से जाने नहीं देना चाहतीं थीं। देवलोक से भूलोक