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गांव का एक लड़का ( 7 )



मजे की बात यह थी कि खेती किसानी की इस भीषण मारामारी में भी खेलने का वक्त गाँव के सारे लड़कों के पास होता l उसमे कोई कमी नहीं होती l कमी थी तो बस पढाई में l जब छोटे थे तो छुपम छुपाई, लट्टू नचाते, कंचे खेलते थे l थोड़ा बड़े हुए तो गुल्ली डंडा, कबड्डी, गेंदताड़ी, तैराकी, टुक्का l फुटबाल, वोलीबाल, क्रिकेट आदि खेल किताबों में ही पढ़ते l क्रिकेट कमेंट्री भी किसी को समझ नहीं आती थी l क्रिकेट का पीछा करना तो बहुत बाद में शुरू किया, शायद तिरासी वर्ल्ड कप के बाद l

शाम को हम सब बस शगुन करने के लिए ढिबरी या लालटेन जला कर पढ़ाई करते l अन्धेरा होते ही कान दरवाजे पर लग जाते l बाहर पिता जी की साईकिल जैसे ही खड़कती, हम सब भाई बहन जल्दी - जल्दी अपनी किताबें ले कर बैठ जाते l किताबें दूर हुईं तो लालटेन उठाकर उसका शीशा साफ़ करने लगते l बाबा पूरे दिन की गाथा बताते, माहौल जब शांत हो जाता तो थोड़ी ही देर में नींद और बस हो गई पढ़ाई l

हाँ नींद से पहले बाबा के साथ किस्सों कहानियों का दौर तो लगभग रोज ही होता था l किस्से उनके तभी शुरू होते थे जब हम बच्चे उनके चारों हाँथ पैर दबा रहे होते थे l हम लाख कहें बाबा शुरू करो पर वह तब तक शुरू नहीं होते जब तक उनके चारों हाथ पैर हम लोग पकड़ न लें l शर्त यह भी होती कि सारे लोग हुँकारी भरेंगे नहीं तो वहीं पर किस्सा बंद l गज़ब के किस्सागो थे बाबा l कहानी कहते कहते पूरे जोश में बैठ जाते थे l कभी मूंछ पर ताव देते, कभी बड़ी - बड़ी आँखें निकाल कर किस्से को जीवंत कर देते थे l किस्से कहानियां हम सुन नहीं साक्षात देख रहे होते l रोज किस्सा शुरू करने से पहले पूंछते - आपबीती सुनाऊँ कि जगबीती? उनकी आपबीती भी खूब रोमांचक होती l रामायण, महाभारत से लेकर शेखचिल्ली तक के किस्से पूरी तन्मयता और नाटकीयता से सुनाते थे l जब तक मैं गाँव में रहा मेरी पहली और आखिरी पाठशाला वही थे l पढने का भी उन्हें बेहद शौक था l जिस दिन हमारी हिंदी और इतिहास की नई किताब घर में आती थी, बाबा उसे चारपाई पर लेटे हुए पढ़ रहे होते, सारे काम छोड़ कर l हमारे कोर्स की ये किताबें हमेशा हम सब से पहले बाबा ही पढ़ते l प्रेमचंद के बहुत बड़े प्रशंसक थे बाबा l मन्त्र कहानी पढ़ कर कहते कि यार यह आदमी कहानी में हर जगह मौजूद रहता है, क्या भगत क्या डॉ. चड्ढा, सबका जैसे आँखों देखा हाल सुना रहा हो l

समाचार पत्र, पत्रिकाएँ कभी घर पर नहीं आईं. हाँ कभी पुराना अखबार, या लिफ़ाफ़े का अखबारी टुकड़ा जब भी दिख जाता, बाबा उसे पढ़ रहे होते l यह आदत मुझमे भी थी और दादा जी इसीलिए मुझसे कुछ ज्यादा करीब थे l आठ वर्ष की उम्र में मुझे उन्होंने बहुत सारे श्लोक और रामचरित मानस का पूरा सुन्दर काण्ड याद करवा दिया था. हमसे कहते कि तुम आगे चलकर व्याकरण पढ़ना l व्याकरण का उनका मतलब संस्कृत भाषा से था l लेकिन मुझे तो विज्ञान ही पढ़ना था l

पिताजी कोर्स की किताबों के अलावा कोई भी किताब देख कर भड़क जाते, रामायण ( रामचरित मानस ) को छोड़कर, कहते कि ये लैला मँजनू की किताबें पढ़ रहे हो, तुम्हारा कुछ नहीं होने वाला l टेलिविज़न का ज़माना था नहीं, रेडियो पर फिल्मी गाने सुनना अश्लील समझा जाता l कोर्स की किताबें अध्यापकों की कृपा से इतनी नीरस लगतीं कि उन्हें पढने का मन नहीं करता l नतीजा यह हुआ कि ज्ञान और जिज्ञासा की सारी खिड़कियाँ बंद रहीं, जब इनकी सबसे ज्यादा जरूरत थी l इस पर भी मैंने गाँव में उपलब्ध साहित्य पढ़ा, चोरी छुपे l आल्हा की पतली किताबें जिनमे ऊपर किसी पहलवान की लँगोट में तस्वीर होती l माड़ौ गढ़ की लड़ाई, बेला का ब्याह से लेकर लैला मँजनू की नौटंकी और सुल्ताना डाकू तक जो मिला सब पढ़ गए l कभी - कभी फूफा - जीजा सुरेन्द्र मोहन पाठक या रानू को ले आये तो वह उनके जाने से पहले ख़त्म कर देते l उसी दौरान मनोहर कहानियां, सत्य कथाएं, सरिता आदि के भी कुछ अंक पढ़े l

उस समय गाँव में हर महीने किसी न किसी घर में अखण्ड रामायण ( रामचरित मानस ) का पाठ होता l पाठ करने वालों की टोली में मैं सबसे कम उम्र वाचक होता, खूब सराहना भी मिलती l रात - रात भर जाग कर रामायण पढने का नशा था मुझ पर, घर से भी इसके लिए छूट रहती l

जारी है ......

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