आए हो, कोई मज़बूरी लगती है
खुल कर बोलो बात अधूरी लगती है
वैसे तो ये बात ज़रूरी है लेकिन
तुमसे कहना गैरज़रूरी लगती है
ख़त्म नहीं हो पाया पल वो सदियों तक
कहने को पल भर की दूरी लगती है
प्यार खोजती रही उम्र भर यहाँ-वहाँ
लड़की यह हिरनी कस्तूरी लगती है
कैसे-कैसे ख़्वाब दिखाये थे उसने
जब भी सोचूँ दिल पर छूरी लगती है
यहाँ हमारे अरमानों का खून बहा
उनको लेकिन शाम सिंदूरी लगती है
मुलाक़ात थी उनसे मगर उछाह नहीं
हमको तो बस खाना पूरी लगती है
- प्रदीप कुमार शुक्ल
( 2021 )
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