आह !
ग्राम्य जीवन भी क्या है
( राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त से क्षमा याचना सहित )
आह, ग्राम्य जीवन भी क्या है
क्यों न यहाँ से सब जन भागें
बहुत कठिन निर्वाह यहाँ है
ये बदहाली और कहाँ है?
यहाँ शहर की बात नहीं है
कोई भी औकात नहीं है
हाड़ तोड़ सब काम यहीं हैं
फसलों के पर दाम नहीं हैं
अनाचार ही अनाचार है
यहाँ जिंदगी तक उधार है
हाथों में, दिल पर हैं छाले
हैं ग्रामीण मनुष्य निराले
आह, ग्राम्य जीवन भी क्या है
क्यों न यहाँ से सब जन भागें
बहुत कठिन निर्वाह यहाँ है
ये बदहाली और कहाँ है?
शहरों से संकरी गलियां हैं
फोन लिए उन पर छलिया हैं
चौराहों पर आखेटक हैं
सड़कों पर हैं, खेतों तक हैं
राजनीति के रँग पसरे हैं
जाति धर्म के घाव हरे हैं
यहाँ गाँव में दुख गहरे हैं
सत्ता में बैठे बहरे हैं
आह, ग्राम्य जीवन भी क्या है
क्यों न यहाँ से सब जन भागें
बहुत कठिन निर्वाह यहाँ है
ये बदहाली और कहाँ है?
- प्रदीप कुमार शुक्ल
( 2020 )
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