Skip to main content
दुआरे पर बसंत
पीत बरन
चेहरे पर
छाया है थकान का साया
कब से खड़ा बसंत दुआरे
मन में सकुचाया
फोन किया है
लड़के ने
कुछ उखड़ा-उखड़ा है
लगी नौकरी छूट रही है
उसका दुखड़ा है
यहाँ बहू का मुखड़ा
कुछ ज्यादा ही मुरझाया
मटमैली सी
धूल चढ़ी
गेंदों के फूलों पर
और दिख रही जंग
गैस के दोनों चूल्हों पर
धुआँ उठा आँगन से
जाकर मन में गहराया
लौट रही
बिटिया कॉलेज से
डरी हुई सहमी
रोज मिलें उसको रस्ते में
कुछ पागल वहमी
दरवाजे का आम
अचानक फिर से बौराया
- प्रदीप कुमार शुक्ल

Comments

Popular posts from this blog

चिल्ड्रेन्स हॉस्पिटल : कुछ नोट्स ( 5 ) रविवार का दिन ज़रा देर से शुरू होकर देर तक चलता है हमारे यहाँ. भीड़ भाड़ कुछ ज्यादा ही रहती है, और दिनों की अपेक्षा. इसका एक कारण डॉ साहब का शाम को न मिलना भी है. लोगों का अवकाश भी रहता है अपने दफ्तरों से. सो, आज रविवार है और दिव्यांश के पापा इसी भीड़ में रिसेप्शन पर भिड़े पड़े हैं. " हमको दिखाना नहीं है, बस बात करनी है डॉ से. लूट मचा रखी है. ये देखो सब टीके लगवाए हैं हमने फिर मेरे बच्चे को टाइफाइड कैसे हो गया? सारे डाक्टरों का ये लूटने का जरिया है. अरे भाई जब टीके काम ही नहीं करते हैं तो लगाते क्यों हो? पैसे कमाने के लिए? " हंगामा बढ़ता देख डॉ साहब ने पापा को चैंबर में बुला लिया है. आपको हमसे बात करनी थी? हाँ तो ठीक है, पहले आप बैठ जाइए डॉ ने स्टूल पर बैठे हुए बच्चे को पर्चा लिख कर विदा किया फिर दिव्यांश के पापा की तरफ मुखातिब हुए जी, बताइए? बताना क्या, आपने सारे वैक्सीन हमारे बच्चे को लगवाए. आपने जो जो कहे हमने सब लगवाए फिर भी हमारा बच्चा जब तब बीमार रहता है. देखिए फिर उसको टाइफाइड हो गया है. आपने पिछले साल ही इसका इंजेक्
मैं तो बचपन हूँ साथी मैं तो बचपन हूँ साथी मुझको दुख से क्या लेना दूब हमारी राहों में खुद मखमल सी बिछ जाती नीले पंखों वाली तितली मुझको पास बुलाती रोज रात में साथ साथ चलती तारों की सेना बाग़ बगीचे सुबह दोपहर मेरी राह निहारें रात मुझे थपकी देती हैं कमरे की दीवारें जेबें मुझे खिलाती रहतीं दिन भर चना चबेना बारिश की बूंदें मुझको खिड़की के पार बुलाएं मुझे उड़ाकर अगले पल बाहर ले चली हवाएं चाह रहा मन दुनिया में चटकीले रँग भर देना - प्रदीप शुक्ल
# किस्सा_किस्सा_लोककथाएं #1 शेषनाग पर लेटे हुए विष्णु भगवान लक्ष्मी जी से बतिया रहे थे। दीवाली का भोर था सो लक्ष्मी जी काफी थकी हुई लग रही थीं, परंतु अंदर से प्रसन्न भी। लक्ष्मी जी ने मुस्कुरा कर कहा, ' हे देव, कल देखा आपने, नीचे मृत्युलोक में कितना लोग मुझे चाहते हैं। विष्णु भगवान कुछ अनमने से दिखे। बोले, देखिये लक्ष्मी जी, दीवाली के दिन तो बात ठीक है, लोग आपकी पूजा करते हैं, आपका स्वागत करते हैं, बाकी के दिनों में भगवान, भगवान होता है। हो सकता है कि कुछ दरिद्र और  अशिक्षित लोग आप की आकांक्षा रखते हो आपका स्वागत करते हों और आप को बड़ा मानते हो, परंतु शिक्षित वर्ग और योग्य लोग भगवान को लक्ष्मी से ऊपर रखते हैं। लक्ष्मी जी ने मुस्कुरा कर कहा नाथ, ऐसा नहीं है। बाकी दिनों में भी मृत्यलोक के प्राणी मुझे ही ज्यादा पसंद करते हैं। और पढ़े-लिखे योग्य लोगों की तो आप बात ही मत करिए। बात विष्णु भगवान को खल गई। बोले, " प्रिये, आइए चलते हैं इस बात की परीक्षा ले ली जाए। हालांकि लक्ष्मी जी दीवाली में थक कर चूर हो चुकी थीं पर यह मौका हाथ से जाने नहीं देना चाहतीं थीं। देवलोक से भूलोक