रिज़ल्ट स्पेशल ( संस्मरण )
इंटरमीडिएट 39 प्रतिशत अंकों से बाकायदा कृपा पूर्वक ( ग्रेस मार्क्स ) पास करने के बाद एक बार फिर आगे की पढ़ाई मुंह बाए खड़ी हुई थी l हालांकि बारहवीं का इम्तेहान देने के तुरंत बाद पिताजी ने एलान कर दिया था कि मेरी तरफ से तुम अब स्वतंत्र हो l आगे की पढ़ाई ( अगर करना चाहो ) अपने बूते पर करो l पुराना जुमला दोहराया कि " बारह साल के बच्चे को वैद्य नहीं ढूँढना पड़ता है " तुम तो अब अठारह के होने वाले हो l
सो, अगली भोर मोमिया में पराठे, कुंदरू की सब्जी, अम्मा का आशीष और आँखों में आँसू लेकर साइकिल लखनऊ की और दौड़ चली l हाईस्कूल थर्ड डिवीज़न पास चिमिरखे से लड़के को कोई क्या नौकरी देता पर पिताजी की बात दिल को लग गई थी और नौकरी तो करनी ही थी l अगले ढाई महीने यानी रिज़ल्ट निकलने तक कैसे गुज़रे उसकी दास्ताँ बहुत लम्बी है फिर कभी सुनाई जायेगी l अभी तो सीधे रिज़ल्ट के बाद आते हैं l
पढ़े लिखे रिश्तेदारों और आवारा दोस्तों ने यही सलाह दी कि अभी चेत जाओ l बी ए में नाम लिखाओ जो डब्बा ढोने की नौकरी कर रहे हो तीन सौ रुपये महीने की उसमे आगे प्रबल संभावनाएं हैं l हमारे घर में प्रायः इस तरह की बातों पर किसी तरह का संवाद नहीं होता था l एक परम्परा सी थी जिसका निर्वाह मनोयोग से किया जाता था कि घर से पैसे मत मांगो, जो चाहो सो करो l
मन में किसी तरह की दुविधा नहीं थी l बी एस सी ही करनी थी l सीपीएमटी, मेडिकल कॉलेज के बारे तो कुछ अता पता ही नहीं था l तब तक पिताजी का एलान भी समय के साथ बह गया था l जेब खर्च के लिए ट्यूशन नाम की गाय पालने का विचार हो चुका था l पर सवाल इस बात का था कि भइय्ये, 39 प्रतिशत वाले प्रखर बुद्धि धारक बालक को कौन कॉलेज दाखिला दे? कान्यकुब्ज कॉलेज से पास होकर उसी कॉलेज के डिग्री सेक्शन में जाने पर यहाँ भी मेरे लिए 10 प्रतिशत नंबरों की कृपा मौजूद थी l जा को राखे सईयाँ ....
रो - धो कर बी एस सी में दाखिला तो हो गया पर यहाँ तो एक दूसरी ही समस्या मुंह बाए खड़ी थी l अवधी मिश्रित हिन्दी में सोचने, बोलने वाले बालक को धाराप्रवाह फिरंगी भाषा समझना और लिखना असंभव के निकट था l ( नोट किया जाय कि गांव से आने के पश्चात पूरे दो वर्षों तक बालक लखनऊ के सभी छविग्रहों में जाकर फिल्मों पर सघन शोध कर रहा था l बालक शोधकार्य लिखना शुरू करता कि इलाहाबाद बोर्ड ने इंटर परीक्षा का टाइम टेबल घोषित कर दिया था ) वर्षांत तक तो हिन्दी - अंग्रेजी का तर्जुमा ही चलता रहा l अब जब सालाना परीक्षा की स्कीम नोटिस बोर्ड पर चस्पा हो गई तो फिर हिन्दी की ही शरण में जाना उचित समझा गया l
परीक्षाएं शुरू हुईं l अब तक हमने नक़ल नाम की चिड़िया नहीं देखी थी l यहाँ तो पूरा अजायबघर था l कोई सिटिंग अरेंजमेंट नहीं जो जिसके साथ बैठना चाहे बैठे l पर्ची बनाने की जहमत उठाने की जरूरत नहीं, एक ही सब्जेक्ट की कई राइटर्स की किताबें लाने की छूट l यहाँ पर फेल होने की संभावना तभी बनती थी जब आप किताब सामने रख कर भी सवालों में प्रयुक्त एक दो शब्दों को साधकर ईरान तूरान की कहानी लिख दें या आपकी अंग्रेजी इतनी फर्राटेदार हो कि मूल्यांकनकर्ता को उर्दू लगने लगे, या फिर आपको ईमानदारी का कीड़ा काट जाए l हमारे मामले में ये तीनों कारण बराबर - बराबर प्रतिशत में मौजूद रहे l
जितने सवाल समझ आए उनका उत्तर मैंने देवनागरी में लिखा, बाक़ी अपनी फर्राटेदार अंग्रेजी में किताबों के फटे हुए पन्ने, जो मित्रों ने तरस खाकर दिए उनको वैसे ही छाप दिया l पृष्ठों को क्रमवार लिखने की जरूरत भी नहीं समझी l
परिणाम आशानुरूप ही रहा l परीक्षक को लगा इस प्रखर बुद्धि बालक को इसी कॉलेज परिसर में अभी और समय व्यतीत करना चाहिए l मैं तीनों विषयों. जूलोजी, बॉटनी और केमिस्ट्री में बाकायदा अच्छे नंबरों से फेल था l जीवन में पहली बार इस तरह की हार का फल चख रहा था l अच्छा यह हुआ कि यह फल फिर कभी खाने को नहीं मिला l
- प्रदीप शुक्ल
------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------
------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------
Comments
Post a Comment